380 साल पुराने असाध्य प्रमेय का हल खोजा अम्बिकापुर के इस गणितज्ञ ने

75 साल के बुजुर्ग 36 साल से जवाब का इंतज़ार

अम्बिकापुर -देश दीपक “सचिन”

तीन सौ वर्षो से गणित के अनसुलझे सवाल को 38 साल पहले ही हल करके जवाब की बाट जोह रहे है सरगुजा के गणितज्ञ चंद्रिका प्रसाद सिंह। दरअसल द्विपद प्रमेय के जनक न्यूटन के फार्मूले से भी पहले इस फार्मूले को पियरे द फार्मा के द्वारा बहोत पहले ही समझ लेने का दावा करते हुए सरगुजा के गणितज्ञ ने हासिये में लिखे उनके आख़िरी प्रमेय का हल 1969 में खोज लेने और 1981 में उस हल को पुस्तक में छपवा लेने का दावा भी किया है। यही नहीं उन्होंने अपनी इस पुस्तक के जरिये उक्त प्रमेय के हल को इंटरनेशनल मैथमेटिकल यूनियन स्वीडन, इंस्टीट्युट मिटेग लेफलर स्वीडन, मैथमेटिकल असोसिएशन लन्दन, द हेड आफ अकेडमी जर्मनी, इलाबाद व द प्रेसिडेंट कलकत्ता को भी भेज अपने शोध को सही अथवा गलत का जवाबा मांगा था लेकिन 36 वर्ष बीत जाने के बाद भी उन्हें अपने शोध का कोई जवाब नहीं मिल सका है।

आज अपने 75 वें जन्म दिन पर चंद्रिका प्रसाद सिंह ने उपस्थित अपने समय के कई गणितज्ञो के सामने एक पत्रकार वार्ता के दौरान दुखी मन से कहा की मेरी शोध का जब आज तक कोई जवाब नहीं मिल सका है तो मै अपने दावे को खुद गलत समझने पर विवश हूँ । गौरतलब है की वर्ष 1969 में जब पियरे द फार्मा के आखिरी अनसुलझे प्रमेय को इन्होने मुंबई में एक पत्रकार वार्ता के दौरान लोगो को इसकी जानकारी दी और अपनी पुस्तक ए लिटिल इलस्ट्रेसन आफ फार्माज लास्ट थ्योरम के माध्यम से आखिरी प्रमेय को हल करने का दावा किया था तब उस समय के कई नामी ग्रामी व बड़े अखबारों में यह समाचार सुर्खियों में था।  आज अपने प्रेस वार्ता के दौरान उन्होंने फर्मा साहब के उक्त प्रमेय के बारे में बताया की उन्होंने 1637 में एक गणितीय पुस्कत के हासिये पर लिख छोड़ा था की किसी भी घन संख्या को दो घनो के योग के रूप में या किसी संख्या के चतुर्थ घात को किसी दो संख्याओं के चतुर्थ घात के योग के रूप में विभाजित करना संभव नहीं है अथवा व्यापक रूप से दो से ज्यादा के घातांक वाली किसी भी संख्या को उसी घातांक की दो संख्याओं के योग के रूप में विभाजित नहीं किया जा सकता है। सरगुजा के शासकीय सेवा निवृत्त कर्मचारी और गणितज्ञ चंद्रिका प्रसाद सिंह सहित देश के कई जानकार गणितज्ञो ने भी इस थ्योरम को हल करने का दावा ना सिर्फ किया बल्कि उस वक्त के अखबारों में भी छपता आया है। इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी फर्माज लास्ट थ्योरम का हल चंद्रिका प्रसाद सिंह द्वारा सही है या गलत इसका उत्तर अभी तक उन्हें नहीं मिल सका है।  जबकी उन्होंने अपनी 1981 में छपी पुस्तक से लोगो को सोचने पर विवश कर दिया था। इस प्रेस वार्ता के दौरान चंद्रिका प्रसाद सिंह के आदर्श के रूप में अम्बिकापुर के रिटायर्ड प्रिन्सिपल ए.डी. सिंह भी उपस्थिति रहे।

तो मिलती इनाम की राशी

1969 में इस असाध्य प्रमेय को हल करने के बाद गणितज्ञ सीपी सिंह ने ना सिर्फ मुंबई में प्रेस कांफ्रेंस की थी बल्कि मुंबई के ही गोयल बंधुओ की मदद से उस जमाने में एक किताब का विमोचन करते हुए इस असाध्य हल से पत्रकार जगत को अवगत कराया था। जिसके बाद पुस्तक की प्रतियां विश्व की 21 अन्तराष्ट्रीय गणित पत्रिकाओं तथा अन्तराष्ट्रीय गणितज्ञ संघ स्वीडन, सचिव अन्तराष्ट्रीय गणितज्ञ संघ पेरिस, फ्रांस तथा संघ के 21 सदस्यों को भेजी गई थी उस वक्त अगर फार्मा के अंतिम प्रमेय का प्रस्तुत हल उक्त अन्तराष्ट्रीय गणितज्ञ संघ द्वारा मान्य हो जाता तो उस वक्त श्री सिंह को “एक लाख मार्क” के सच्चे दावेदार का ईनाम मिल जाता क्योकि उस समय जर्मन गणितज्ञ पाऊ वोल्फ स्केचल ने वर्ष 1908 से ही जर्मनी की एक बैंक में सही हल करने वाले के लिए ईनाम की राशी बैंक में जमा कर रखी थी।

द्विपद प्रमेय न्यूटन से पहले फर्मा साहब समझ चुके थे

इस दौरान श्री सिंह ने बताया की जब मैंने फर्मा साहब के प्रमेय का गहन अध्यन किया तो फर्मा साहब के अंतिम असाध्य प्रमेय को पढ़ने के बाद ऐसा लगता है की न्यूटन से पहले ही फर्मा साहब द्विपद प्रमेय को समझ चुके थे तभी इन्होने उस प्रमेय को हासिये में लिख छोड़ा था।