पीढियों का पेड़ कटा तो छलका दर्द.. पीढियों के जीवन पर भी करना होगा विचार..!

 

3 लाख करोड़ पेड़ अब तक काटे गए उनका क्या..?

एक शहर या प्रदेश की समस्या नहीं मानव जाति के पतन का है मामला..

रायपुर वनों की अवैध कटाई ने पर्यावरण को काफी नुकसान पहुंचाया है। वषों से हो रही लगातार अवैध कटाई ने जहां मानवीय जीवन को प्रभावित किया है, वहीं असंतुलित मौसम चक्र को भी जन्म दिया है। वनों की अंधाधुंध कटाई होने के कारण देश का वन क्षेत्र घटता जा रहा है, जो पर्यावरण की दृष्टि से अत्यंत चिंताजनक है। विकास कार्यों, आवासीय जरूरतों, उद्योगों तथा खनिज दोहन के लिए भी, पेड़ों-वनों की कटाई वर्षों से होती आई है। कानून और नियमों के बावजूद वनों की कटाई धुआंधार जारी है। इसके लिए अवैज्ञानिक व बेतरतीब विकास, जनसंख्या विस्फोट व भोगवादी संस्कृति भी जवाबदेह है।

पर्यावरण विशेषज्ञों के मुताबिक बीसवीं शताब्दी में पहली बार मनुष्य के कार्यकलापों ने प्रकृति के बनने और बिगड़ने की प्रक्रिया को त्वरित किया और पिछले 50 सालों में उसमें तेजी आई है। पर्यावरण एवं वन मंत्रालय द्वारा जारी वन स्थिति रिपोर्ट-2011 के अनुसार देश में वन और वृक्ष क्षेत्र 78.29 मिलियन हेक्टेयर है, जो देश के भौगोलिक क्षेत्र का 23.81 प्रतिशत है। 2009 के आंकलनों की तुलना में, व्याख्यात्मक बदलावों को ध्यान में रखने के पश्चात देश के वन क्षेत्र में 367 वर्ग किमी की कमी हुई है। 15 राज्यों ने सकल 500 वर्ग किमी वन क्षेत्र की वृद्धि दर्ज की है, जिसमें 100 वर्ग किमी वन क्षेत्र वृद्धि के साथ पंजाब शीर्ष पर है। 12 राज्यों, केंद्र शासित प्रदेशों (खासतौर पर पूर्वोत्तर राज्य) ने 867 वर्ग किमी तक की कमी दर्ज की है। पूर्वोत्तर के वन क्षेत्र में कमी खास तौर यहां पर खेती के बदलावों के कारण हुई है। नीति का लक्ष्य यह है कि 33 प्रतिशत क्षेत्र में वन और पेड़ है।

यहां जन और क्षेत्रीय अनुपात में 39-40 प्रतिशत वन विस्तारित क्षेत्र होना चाहिए, किंतु न्यूनतम सीमा 33 प्रतिशत निर्धारित की गई। सभी भारतीय राज्य इस मानक की भी पूर्ति नहीं कर पाए हैं। इसका सीधा कारण है कि वन-कटाई के अनुपात में जंगल की कटाई की समस्या सबसे ज्यादा तीसरी दुनिया के देशों में विमान हैं। विकास की प्रक्रिया से जूझ रहें इन देशों ने जनसंख्या वृद्धि पर लगाम नहीं कसी है। जंगलों के कटने से एक तरफ वातावरण में कार्बन डाई ऑक्साइड बढ़ रही है, वहीं दूसरी ओर मिट्टी का कटाव भी तेजी से हो रहा है। भारतीय परिप्रेक्ष्य में बात करें तो तीसरी दुनिया से पहली दुनिया के देशों में शुमार होने के लालसा में हमारे देश में जंगलों को तेजी से काटा जा रहा है। हिमालय पर्वत पर हो रही तेजी से कटाई के कारण भू-क्षरण तेजी से हो रहा है। एक रिसर्च के मुताबिक हिमालयी क्षेत्र में भूक्षरण की दर प्रतिवर्ष सात मिमी तक पहुंच गई है। आजादी के समय 45 फीसद भू-भाग पर वन आछादित क्षेत्र था, परंतु इसके बाद हर साल पेड़ों की कटाई के कारण इसमें निरंतर कमी आ रही है, जिससे वर्षा की कमी पर्यावरण प्रदूषण के कारण मानव रोगों में वृद्धि आई है। तापमान में बढ़ोतरी के फलस्वरूप 20 से 25 फीसद फसलों का उत्पादन कम हो रहा है। धरती की उर्वरा शक्ति घटती जा रही है।

देश के लगभग हर राज्य में विकास और अन्य गतिविधियों के नाम और आड़ में वनों की कटाई धड़ल्ले से जारी है। छत्तीसगढ़ में खदानों के नाम पर सड़क डेव्हलपमेंट के नाम पर वनों को काटा जा रहा है, जिससे पहाडियां पूरी तरह नंगी हो चुकी है। वनों की कटाई के कारण मृदा का क्षरण हो रहा है, जिससे भूस्खलन हो रहा है। इस कारण नदियां और पहाड़ अपना बदला ले रहे हैं। प्रकृति ने पहले ही विनाश के संकेत दे दिए थे। नतीजन उत्तर छत्तीसगढ़ यानी सरगुजा में वन की कमी के कारण हाथियों की आमद शहर और गाँव में है और हाथियों के हमले के शिकार लोग अपनी जान गवां रहे है..

संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार दुनिया भर में वर्ष 1990 से 2005 के हर मिनट नौ हेक्टेयर जंगलों का सफाया किया गया है। दूसरे शब्दों में हर साल औसतन 49 लाख हेक्टेयर क्षेत्र में फैले वनों की कटाई की गई। पूरी धरती पर अब 30 फीसदी वन क्षेत्र ही बचा है, जो अपने आप में एक खतरे की घंटी है। वनों की तबाही और इसके चलते वन्य जीवों के विलुप्त होने के यह आंकड़े बहुत भी भयानक हैं। धरती पर पर्यावरण के असंतुलन के चलते वायु प्रदूषण भी अपने चरम पर है।

विश्व स्तर पर जो आंकड़े प्रकाश में आए हैं, उनसे पता चलता है कि वर्ष 1990 से 2000 के बीच वनों की कटाई का अनुपात प्रतिवर्ष 41 लाख हेक्टेयर प्रतिवर्ष था, जो वर्ष 2000 से 2005 के बीच बढ़कर 64 लाख हेक्टेयर हो गया। वनों की कटाई से पर्यावरण में शुद्ध हवा का अभाव है। इतना ही नहीं ओजोन परत का बढ़ने में भी वनों की अंधाधुंध कटाई जिम्मेदार है। इससे वन से मिलने वाली वस्तुओं का भी खात्मा होता जा रहा है। इतना ही नहीं, लाखों की तादाद में वन्य जीव लुप्त हो रहे हैं। या फिर एकदम ही खत्म हो चुके हैं।

पारिस्थितिकी संतुलन के लिए कंजरवेशन एक्ट 1980 लागू हुआ। 1988 में न संरक्षण कानून पास हुआ। 1985 में राष्ट्रीय बंजर भूमि विकास बोर्ड की स्थापना की गई। 1986 की राष्ट्रीय वन नीति में 60 प्रतिशत पर्वतीय भूभाग तथा कृषि भूमि को छोड़कर 20 प्रतिशत मैदानी भाग को वनाच्छादित करने का लक्ष्य रखा गया।

लकड़ी कारोबारियों के लिए कठोर दंड का प्रावधान किया गया। चंदन तस्कर वीरप्पन को मुठभेड़ में मार गिराया गया। वन क्षेत्र वृद्धि के लिए केंद्र राज्य सरकारों को ऋण मुहैया कराती है। विश्व खाद्य एवं कृषि संगठन, संयुक्त राष्ट्र संघ विकास योजना, यूरोपीय आर्थिक समुदाय तथा अन्य विश्व स्तरीय संस्थाएं भी भारत के वन क्षेत्र विकास के लिए आर्थिक मदद देती रही हैं।

पर्यावरण असंतुलन को रोकने के कई प्रयास होते रहे हैं, किंतु स्थिति जस-की-तस है। अब ऐसे प्रभाव कानून बनाने एवं उनके क्रियान्वयन की जरूरत है, जो वन कटाई से वन क्षेत्र के असंतुलन को रोकने में समर्थ हों। दूसरी ओर, जन जागरुकता का स्तर इतना उच्च हो कि वह वनारोपण को जीवन का ध्येय बना लें। परिवार नियोजन की तरह ही वन नियोजन लागू किया जाए। इसके तहत कटाई पर प्रतिबंध कड़ा किया जाए और नई संतति, नया वृक्ष व जितने परिवारीजन, रोपें उतने वन के नारों पर पूर्ण क्रियान्वयन शुरू किए जाएंगे।

पृथ्वी पर मानव जीवन लंबे समय तक तभी चल सकता है, अगर हम वनों का संरक्षण करेंगे। अगर वनों की कटाई यूं ही होती रही तो वह दिन दूर नहीं जब पृथ्वी पर मानव जीवन दुश्वार हो जाएगा। पेड़ों की बेलगाम कटाई पृथ्वी पर विभिन्न जानवरों और पक्षियों के अस्तित्व को संकट में डाल रही है। अनुसूचित जनजातियों (वनवासियों) का जन्मजात जुड़ाव, जंगल, जमीन जल से रहा है। उनको ही वन-संपदा का रखवाला-रक्षक बनाया जाए।   हर पंचायत मुख्यालय में ‘स्मृति-वन’ की स्थापना हो। हर शिक्षण संस्थान, हर सरकारी दफ्तर के प्रांगण में वृक्षारोपण हो। ‘प्रत्येक परिवार, एक पेड़’ का सार्थक अभियान चलाया जाए।

एक पेढ की कटाई से बढ़ी लोगो की पीड़ा 

दरअसल छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर सिटी कोतवाली के सामने के चार सौ साल पुराने पीपल पेड़ को काटने के खिलाफ रविवार की शाम 7 बजे लोग सड़कों पर उतर आये।  सबके हाथ में मोमबत्ती, आंखों में दर्द और गुस्सा था। सभी नारेबाज़ी करते हुए कटे हुए पीपल पर मोमबत्ती जलाकर श्रद्धांजलि दी। इसके बाद उसकी जड़ के चारों तरफ खुद ही मिट्टी को पाटकर वहां इस उम्मीद से पानी डाला, ताकि उसी पेड़ से नई कोंपलें फूट सके। काफी दिनों बाद ऐसा देखा गया की समाज के हर तबके के लोग, क्या राजनेता क्या सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार, कलाकार, महिलाएं बच्चे सभी इसमें शामिल हुए। इस भीड़ में हर ख़ास आज आम था। लोगों की भीड़ से सड़क में जाम की स्थिति निर्मित हो गई, लेकिन इससे कोई भी परेशान नही हुआ। बल्कि राह से जाने वाले भी इस प्रदर्शन को देखने के लिए वहां रुकते रहे।

दरअसल, सड़क चौडीकरण के लिए दो दिन पहले शहर के चार सौ साल पुराने पेड़ को प्रशासन ने काट दिया था। जिसके बाद से शहर के लोग आक्रोशित हो गए। पहले तो इस पेड़ की कटाई का विरोध सोशल साइट्स पर शुरू हुआ फिर धीरे धीरे लोग सड़क पर आने लगे। और जब शहर की याद के रूप में विराजमान पेड़ को काटा गया तब पेड़ की उपयोगिता का दर्द उबल पडा। बहरहाल इस एक पेड़ के बहाने ही सही लेकिन ये मामला यु ही शांत होने वाला नही। लोग अब और पेड़ नहीं काटने देंगे। और जाहिर है की जंगल बचाने जागरूकता में भी इजाफा होगा।

वही मंत्री बृजमोहन अग्रवाल ने भी जिला प्रशासन के पेड़ काटने के निर्णय पर ऐतराज किया है। मंत्री के एतराज के बाद जिला प्रशासन ने बाकी पेड़ों को ना काटने का निर्णय लिया है। खबर यह भी है की लोगो ने इस मामले की शिकायत एनजीटी से भी की है।

डॉ आशीष चौहान आयुर्वेद चिकित्सक 

इस सम्बन्ध में आयुर्वेद चिकित्सक डाक्टर आशीष चौहान ने जंगलो की कटाई से होने वाले नुकसान को बताया उन्होंने बताया की कैसे प्रति पेड़ की कटाई से आक्सीजन की कमी हो रही है और आक्सीजन की कमी से लोगो का स्वस्थ प्रभावित हो रहा है। डॉ चौहान कहते है की आज के बच्चे 3 वर्ष  उम्र से ही ऐसी बीमारियों से ग्रसित हो रहे है जो आक्सीजन की कमी से होती है। बहरहाल स्वास्थ संबंधी कई जानकारियाँ देते हुए उन्होंने बस यही सलाह दी है की हम अगर पर्यावरण से प्रेम करेंगे तभी वो हमें प्रेम करेगा, नहीं तो पेड़ो की कटाई के परिणाम भयंकर आने वाले है।