पहले खो दिया दोनों पैर..फ़िर 20 दिन के नवजात की हो गई मौत..टूटा दुःखों का पहाड़.. फ़िर भी बुलंद हौसले के साथ समाज के लिए मिसाल है ये दिव्यांग महिला!

कोरिया. कहतें हैं मंजिले उन्ही को मिलती हैं जिनके हौसलों में जान होती है. पंखों से कुछ नहीं होता, हौसलों से उड़ान होती है. यह लाइने फ़िट बैठती है. कोरिया जिले के मनेंद्रगढ़ ब्लॉक के ग्राम लालपुर की 55 वर्षीय महिला फूलबाई के ऊपर. दरअसल, बेटे को जन्म देने के बाद फूलबाई के दोनों पैरों में सूजन आ गई थी. हालात इतनी बिगड़ गई थी की फूलबाई की जान बचाने के लिए डॉक्टरों को उनके दोनों पैर काटने पड़े. लेकिन फूलबाई ने अपने दोनों पैरों के काटे जाने का असहनीय दुख तो बर्दाश्त कर लिया, लेकिन इस बीच उनपर एक और दुःख का पहाड़ टूट पड़ा. उनके 20 दिन के नवजात बेटे की मौत हो गई. इतना सदमा सहने के बाद भी फूलबाई ने कभी हार नहीं मानी और दोनों पैरों नहीं रहने के बाद भी उसने कभी किसी का सहारा नहीं लिया.

दरअसल, मनेंद्रगढ़ ब्लॉक के ग्राम लालपुर में रहने वाले अवध राज सिंह खेती-बाड़ी करके अपना जीवन यापन करते हैं. उनके परिवार में दिव्यांग फूलबाई के अलावा एक बेटी है जो कॉलेज में पढ़ाई करती है. फूलबाई जन्म से ही दिव्यांग नहीं थी. लगभग 27 वर्ष पूर्व फूलबाई को प्रसव पीड़ा होने पर सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र में भर्ती कराया गया था. यहां फूलबाई ने एक स्वस्थ बेटे को जन्म दिया. लेकिन इस दौरान उनके पूरे शरीर में सूजन आ गया और उनकी तबियत बिगड़ने लगी. सूजन के चलते उनके दोनों पैर सड़ने लगे. जिसके बाद डॉक्टरों ने उनकी जान बचाने के लिए उनके दोनों पैरों को काटने का निर्णय लिया. तब कहीं उनकी जान बच पाई.

इधर नवजात के जन्म के 20 दिन बाद समुचित देखरेख के अभाव में नवजात बेटे की घर में मौत हो गई. जिसने फूलबाई को अंदर से तोड़ कर रख दिया. लेकिन इतने बड़े जख्मों को झेलने के बाद भी फुलबाई ने हौसला नहीं खोया और बिना पैरों के ही उसने अपनी जिंदगी को फिर से एक नए तरीके जीने का फैसला लिया.

गरीबी के चलते उसकी तीन बेटियां तो नहीं पढ़ पाई, लेकिन फिर किसी तरह उसने अपनी दो छोटी बेटियों को पढ़ाने का निर्णय लिया. आज उसी का परिणाम है कि एक बेटी कॉलेज में पढ़ाई कर रही है. पहले फूल बाई के पति अवध राज सिंह बैलगाड़ी चलाकर अपने परिवार का गुजर-बसर किया करते थे. लेकिन बदलते समय के साथ बैलगाड़ी का चलन बंद हो गया. तब उन्होंने खेती-बाड़ी कर जीवन यापन शुरू किया. लेकिन खेती-बाड़ी कम होने के कारण परिवार का भरण पोषण ठीक से नहीं होता था. जिसे देख फूलबाई ने अपने घर में ही एक छोटी सी किराने की दुकान शुरू की. जिसमें उसने छोटी-छोटी चीजें रखकर अपने बच्चों को बड़े सपने दिखाना शुरू किए.

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फूलबाई अपनी जरूरत की सभी काम जहां अपने हाथों से करती है वहीं उसे अपने घर व आसपास साफ-सफाई पसंद है. फूलबाई कहती है कि अगर हम अपने घर को साफ नहीं रख पाएंगे तो दूसरों को स्वच्छता की प्रेरणा कैसे दे सकते हैं. यही वजह है कि हर तीज त्यौहार के मौके पर दोनों पैरों से दिव्यांग फूलबाई बिना किसी सहारे के मिट्टी लाती हैं और उसे फावड़े से मिलाकर अपने घर के बाहर इस प्रकार लीपती है कि देखने वाले देखते रह जाते हैं. घर आंगन की साफ-सफाई, घर के जरूरी कामों के साथ वह अपना अधिकांश समय दुकान में देती है. उसका मानना है कि कोई भी व्यक्ति अगर अपने मन से दिव्यांग ना हो तो दिव्यांगता कभी उसके आड़े नहीं आती.

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इतना होने के बाद भी फूल बाई को आज तक एक बात का मलाल है कि वह लंबे समय से सरकार से इंदिरा आवास की मांग कर रही है. लेकिन उसका आवेदन कभी संबंधित अधिकारी की टेबल तक नहीं पहुंच पाता. जो समझ से परे है. फुलबाई ने बताया कि वह कई बार इसे लेकर अधिकारियों के चक्कर लगा चुकी है. लेकिन आज तक उसका इंदिरा आवास स्वीकृत नहीं हुआ. प्रधानमंत्री आवास के लिए भी उसने आवेदन दिया लेकिन वह भी स्वीकृत नहीं हुआ. फूल बाई इस बात को लेकर थोड़ी परेशान जरूर है. लेकिन उसका मानना है कि आज नहीं तो कल उसके आवेदन पर जरूर ध्यान दिया जाएगा और उसे रहने के लिए ख़ुद का मकान जरूर मिल सकेगा. इसके अलावा उसे जो मासिक पेंशन मिलती है वह भी नियमित रूप से नहीं मिल पाती. पेंशन चार-पांच महीने में एक बार मिलती है. जिससे फूलबाई को आर्थिक रूप से परेशानियों का सामना करना पड़ता है. लेकिन इतनी परेशानियों के बीच भी फूलबाई के चेहरे में उसके नाम की तरह हमेशा मुस्कुराहट उन लोगों के लिए सबक है जो छोटी-छोटी परेशानियों में भी अपने को मायूस कर बैठ जाते हैं. ऐसे लोगों के लिए फूलबाई एक मिसाल है.