वे बीमार हैं। क्यों? क्योंकि उन्हें कई दिनों से दया का डोज नहीं मिला। दया उनके लिए दवा है। ‘बेचारा!’ यह शब्द उनके कानों के लिए संगीत की तरह है। ‘देखो बेचारे के पास नौकरी नहीं है।’ ‘देखो बेचारे के पास पैसे नहीं हैं।’ ‘देखो बेचारे के पास रहने को खुद का घर नहीं है।’ ‘देखो बेचारे के पास गर्लफ्रेंड नहीं है।’ दूसरों की दया पर जीना बुरा माना जाता है, लेकिन उनके जीवन का तो उद्देश्य ही यही है। अहा! वाह! मजा आ गया! जीवन क्या है? संघर्ष है। संघर्ष करो, सुहानुभूति बटोरो।सुहानुभूति का रस अनोखा है। पढ़े-लिखे हैं, नौकरी की कोई कमी नहीं है उनके लिए। लेकिन अगर नौकरी करने लगे तो बेरोजगार होने की बेचारगी उनसे छिन जाएगी। संघर्ष खत्म। दया खत्म। संपन्न परिवार से हैं। लेकिन हालत ऐसी बनाकर रखते हैं कि कोई भिखारी पर ध्यान भले न दे, लेकिन उन्हें देखकर जरूर किसी का भी दिल पसीज जाए। उधार की जिंदगी जी लेंगे, लेकिन घरवालों से पैसे लेकर सुहानुभूति के कोटे को नुकसान नहीं पहुंचाएंगे। संघर्ष खत्म। दया खत्म। शहर में उनकी बड़ी कोठी पड़ी है। कोठी जुआ का अड्डा बन गई पर उन्हें उसमें रहना गंवारा नहीं। दोस्तों
के घर, स्टेशन पर, सराय में वक्त काट लेंगे, लेकिन अपनी कोठी पर नहीं रहेंगे। इससे संघर्ष का फील खत्म हो जाएगा। संघर्ष खत्म। दया खत्म। उन्हें प्रेम की तलाश नहीं है। उन्हें तो बस दुख चाहिए। चाय की गुमटी पर खड़े होकर जानबूझकर बिस्कुट को डुबोकर मीन पर गिराएंगे और अगर किसी ने कह दिया कि ‘बेचारे’ का बिस्कुट गिर गया तो उनका दिन सफल मानिए। किसी ने कहा ‘बेचारा’ कितना दुबला हो गया है तो उनके चेहरे पर संतुष्टी का भाव आ जाएगा। मैंने उनसे एक बार पूछा भी कि आप इतने अभावों में, इतने कष्टों में क्यों रहते हैं? वे बोले, ‘अरे संघर्ष का आनंद तुम क्या जानो? अभाव में बहुत आनंद है? अरे कल को मैंने किताब लिखी तो उसमें क्या लिखूंगा? अब मेरी जिंदगी में अभाव नहीं हैं तो मेरी गलती क्या है? संघर्ष तो जरूरी है न।’ अब कई दिनों से बीमार हैं। किसी ने बड़े दिनों से सुहानुभूति नहीं जताई। गुमटी पर बैठे आज दया का इंतजार कर रहे हैं। कोई आए और उनकी हालत पर तरस खाए तो उन्हें चैन मिले। वे भिखारी नहीं है। सुहानुभूति के शौकीन हैं। भिखारी का दया से पेट भरता है, इनका मन भरता है। ये
उच्चवर्गीय भिखारी हैं। आखिर जीवन क्या है, संघर्ष। फिर जबर्दस्ती ही सही!