जगलदपुर. आपने धनिया पुदीना या टमाटर की चटनी का स्वाद चखा होगा। लेकिन, क्या लाल चिटियों ( आसान शब्दों में इसे गांव के लोग “माटा” कहते हैं।) की चटनी के बारे मे सुना हैं। यह आपको अटपटी लग सकती हैं लेकिन यह सच हैं। यह चटनी आपको और कही नही बल्कि छत्तीसगढ के बस्तर मे मिलेगी। यंहा लाल चिटियो की चटनी को आदिवासी बडे चाव से खाते हैं। बस्तर मे रहने वाले आदिवासी लाल रंग की चिटियो को पेडो से इक्ठटा करके चटनी बनाते हैं। इसे स्थानीय बोलचाल मे चापडा चटनी कहते हैं। और सरगुजा के ग्रामीण इलाकों में इसे “माटा” कहते हैं। आप बस्तर के किसी पांरम्परिक हाट साप्ताहिक बाजार मे है तो पत्तो के दोने मे लाल चिटिंया बेचती आदिवासी महिला आसानी से आपको दिख जायेंगी। आदिवासी अपने खानपान में इस चटनी का इस्तेमाल सदियो से करते आ रहे हैं। यह चटनी मेडिसिन का भी काम करती हैं।
इतिहासकार बताते हैं कि, आदिवासियो का मानना हैं कि चापड़ा स्वास्थ के लिए बहुत फायदेमंद होता हैं। इन चिटियो मे प्रचुर मात्रा मे प्रोटिन के साथ ही आयरन और कैल्सियम पाया जाता हैं। इसके सेवन मे मलेरिया, पीलिया और अन्य जलजनित बिमारिया मे आराम मिलता हैं। यही नही ग्रामीण अंचलो मे रहने वाले आदिवासी तेज बुखार होने पर इस चिटी के झुंड मे पंहुच जाते हैं और इन चिटियों के डंक से बुखार भी धीरे धीरे उतरने लगता हैं।
इतिहासकारो के मुताबिक, अप्रैल और मई का महीना आते ही ये लाल चिटियां जंगलो मे सरगी, साल और आम के पेडो के पत्तो मे बडे पैमाने पर छत्ता बनाते हैं। फिर ग्रामीण इन पेडो पर चढकर इन चीटियों को जमा कर लेते हैं। अगर इसकी चटनी बनानी हो तो लहसुन, अदरक मिर्ची और धनिया को सिलबट्टे पर पीस कर उसमे स्वाद के अनुसार नमक मिलाते हैं। इससे स्वाद चटपटा हो जाता हैं और फिर बडे चाव से बस्तर के मूल आदिवासी खाते हैं। वर्तमान मे कुछ आदिवासी इस चटनी मे अदरक व लहसुन भी मिलाने लगे हैं। जिससे इसकी स्वाद दोगुनी बढ जाती हैं।
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