कोरिया
बैकुण्ठपुर से J.S.ग्रेवाल की रिपोर्ट
छत्तीसगढ़ में लोक कला नें अपनी एक अलग ही महक छोडी है ……. तरह – तरह के लोक संस्कृतियो से अटे पडे छत्तीसगढ़ को धान का कटोरा भी कहा जाता है। हरे भरे खेतों से सजी छत्तीसगढ़ की धरती में अद्भूत मादकता और माधुर्य है। धान के खेत दूर तक नज़र डालने से तो ऐसा लगता है कि धरती ने धानी चुनरिया ओढ़ ली है। लोककलाओं में भी छत्तीसगढ़ काफी समृद्ध है यहां के विशेष तौर पर करमा और सुआ नृत्य और गीतों का सम्मोहन जगजाहिर है।
कर्मा नृत्य छत्तीसगढ़ अंचल के आदिवासी समाज का प्रचलित लोक नृत्य है। कर्मा नृत्य, सतपुड़ा और विंध्य की पर्वत श्रेणियों के बीच सुदूर ग्रामों में भी प्रचलित है। शहडोल, मंडला के गोंड और बैगा तथा बालाघाट और सिवनी के कोरकू और परधान जातियाँ कर्मा के ही कई रूपों को नाचती हैं। बैगा कर्मा, गोंड़ कर्मा और भुंइयाँ कर्मा आदिजातीय नृत्य
करमवृक्ष, मनौती और उपवास
भादों मास की एकादशी को उपवास के पश्चात करमवृक्ष की शाखा को घर के आंगन या चौगान में रोपित किया जाता है। दूसरे दिन कुल देवता को नवान्न समर्पित करने के बाद ही उसका उपभोग शुरू होता है। कर्मा नृत्य नई फ़सल आने की खुशी में किया जाता है। यह नृत्य छत्तीसगढ़ की लोक-संस्कृति का पर्याय है। छत्तीसगढ़ के आदिवासी, ग़ैर-आदिवासी सभी का यह लोक मांगलिक नृत्य है। कर्मा की मनौती मानने वाला दिन भर उपवास रखता है और अपने सगे-सम्बंधियों और पड़ोसियों को न्योता देता है। शाम के समय कर्मा वृक्ष की पूजा कर टँगिये के एक ही वार से डाल को काटा जाता है, उसे ज़मीन में गिरने नहीं दिया जाता। उस डाल को अखरा में गाड़कर स्त्री-पुरुष रात भर नृत्य करते हैं और सुबह उसे नदी में विसर्जित कर देते हैं। इस अवसर पर गीत भी गाये जाते हैं..