बस्तर. भ्रूण हत्या जो की एक जधन्य अपराध है। सरकार ने इस पर रोक तो लगाई है पर अभी भी यह पूर्णतः समाप्त नहीं हुआ है। हजारों लोग इस हत्या में शामिल है। मतलबी इन्सान अपने फायदे के लिए किसी के फलने फूलने से पहले ही उसे नष्ट कर देता है। फिर वह बात चाहे इंसानों की हो या वनस्पतियों की, जन्म से पहले हत्या भ्रूण हत्या ही होती है, शासन द्वारा इंसानों के लिए बहुत से नियम बनाये गए है लेकिन इन बेजुबानों के लिए कोई नियम नहीं.?
इंसान इसे व्यापर का जरिया बना रहे है। आप में से ज्यादातर लोगों ने बास्ता यानी करील की सब्जी का सेवन किया होगा, जो बस्तर में मानसून काल में हाट-बाजारों में आसानी से उपलब्ध रहता है। ग्रामीण इसकी सब्जी चाव से खाते हैं, लेकिन अब शहरी क्षेत्रों में भी इसकी खपत ज्यादा होने लगी है। यह ग्रामीणों की आमदनी का एक जरिया तो बन गया है, लेकिन कभी आपने सोचा है कि बास्ता निकालना एक तरह से बांस की भ्रूण हत्या ही है। बास्ता नहीं निकालने पर यही कोंपलें कुछ सप्ताह में ही परिपक्व बांस के रूप में तब्दील हो जाती हैं।
ग्रामीणों के सीमित मात्रा में उपयोग से इसे उतना नुकसान नहीं पहुंचता, जितना कि इसके बाजारीकरण से हो रहा है। अंधाधुंध बास्ता निकाले जाने से बस्तर के जंगल-पहाड़ों से बांस की विविध प्रजातियां लुप्तप्राय हो चुकी हैं। बास्ता को बांस बनने का मौका ही नहीं मिल पा रहा है, जिससे बांस के झुरमुट खाली होते जा रहे हैं। अधिकांश जगह सिर्फ पुराने बांस के ठूंठ ही दिखते हैं।
बैलाडीला के जंगल मे जहां 3 दशक पहले तक बांस के कूप हुआ करते थे, वन विभाग परिपक्व बांसों की कटाई कर ग्रामीणों को रोजगार दिलाता था, वहीं अब बांस का दिखना ही मुश्किल हो गया है। ऐसी ही स्थिति अन्य जगहों पर भी है। लगभग सभी जंगल-पहाड़ी से बांस की विदाई होती जा रही है। वन विभाग ने बाजारों में बास्ता की बिक्री पर प्रतिबंध तो लगाया है, लेकिन सख्ती नहीं बरती जा रही है।
अगर ग्रामीणों को बास्ता का व्यावसायिक दोहन रोकने के लिए प्रेरित नहीं किया गया, तो आने वाले समय में बांस पूरी तरह विलुप्त हो सकता है। ग्रामीणों और ग्राम पंचायतों को स्वयं इसके लिए आगे आना होगा।