ये समय ऐसा है जब लड़कियां समाज की बेड़ियों को तोड़ कर आगे बढ़ रही हैं, वो सब कर रही हैं जो उनसे पहले (उनकी मां) महिलाओं को करने के लिए दस बार सोचना पड़ता था. आज शायद ही ऐसा कोई घर हो जहां लड़कियों को उनके सपने पूरे करने के लिए मनाही हो. लेकिन आज से 40-50 साल पहले कोई औरत ऐसा कर जाए, जिसे आज के समय में Feminism से जोड़ कर देखा जाने लगे, तो वो किसी सपने से कम नहीं होगा. ऐसा इसलिए कह रहे हैं, क्योंकि उस वक़्त ऐसा कोई Social System नहीं था, जो इसके लिए महिलाओं को प्रोत्साहित कर सके.
चलिए अब 40 साल पीछे चलते हैं, शांताबाई के बारे में जानने के लिए. आज से करीबन इतने ही साल पहले शांताबाई अपनी 4 बेटियों के साथ आत्महत्या करने वाली थी. लेकिन ये आर्टिकल उसके आत्महत्या के प्रयास के बारे में नहीं है, ये लेख उस शांताबाई की कहानी है, जो हालातों से दो-दो हाथ करते हुए बनी देश की सबसे पहली महिला नाई.
[highlight color=”blue”]नहीं, ये किसी बड़े कस्बे से निकल कर सैलून की मालकिन नहीं बनी, अगर ऐसा होता तो ये कोई Fancy कहानी होती. शांताबाई ने अपने परिवार को चलाने के लिए वो काम किया जिस पर सिर्फ़ आदमियों का ही आधिपत्य है. उसने गांव-गांव जा कर बाल काटने का काम शुरू किया, इसकी शुरुआत कैसे हुई, बताते हैं.[/highlight]
महाराष्ट्र के कोल्हापुर ज़िले के एक छोटे से गांव की शांताबाई की शादी श्रीपति यादव से हुई. ससुराल में ज़मीन थी, पति खेती का काम करने के साथ-साथ नाई भी था इसलिए कभी-कभार पैसे कमाने दूसरे गांवों में हजामत करने चला जाता था. फिर एक दिन भाइयों में बंटवारा हो गया, पति के हाथ आयी आधे एकड़ से कम ज़मीन.
घर को संभालने के चक्कर में श्रीपति आस-पास के गांवों में हजामत का काम करने जाता और शांताबाई ज़मीन पर खेती. धीरे-धीरे गाड़ी पटरी पर आ ही रही थी कि, कि तभी श्रीपति को हार्ट अटैक आया और उसकी मौत हो गयी. बचे शांताबाई और उनकी चार बच्चियां. कुछ दिन तो शांताबाई ने खेतों में कमर तोड़ मज़दूरी की, आठ-आठ घंटे काम किया, लेकिन इतने काम के उन्हें बस 50 पैसे मिल रहे थे.
इतने पैसों में न तो घर की ज़रूरतें पूरी हो रही थी, न ही कुछ गुज़ारा हो पा रहा था. फिर उन्होंने वो करने का फैसला किया, जो शायद 40 साल बाद भी एक औरत न कर पाए.
[highlight color=”blue”]शांताबाई ने अपने पति की जगह नाई बनने का फैसला किया. महाराष्ट्र के छोटे से गांव की एक विधवा जब आदमियों का काम समझे जाने वाले व्यवसाय को चुने, तो आपको लगता है समाज ने उसे उसका दायरा दिखाने की कोशिश नहीं की होगी?[/highlight]
लोगों ने शांताबाई पर फब्तियां कसीं, तरह-तरह की बातें कहीं, लेकिन इन बातों ने शांताबाई के हौसले को रोक नहीं, हौसला नहीं, यूं कहें ये उसके लिए एक आखरी मौका था ज़िन्दगी से हाथ मिलाने का.
कुछ ही समय में आस-पास के लोगों और गांवों में शांताबाई के काम के चर्चे होने लगे. वो दिन भर अपने बच्चों को पड़ोसियों के यहां छोड़ कर रोज़ 4-5 किलोमीटर चल कर दाढ़ी बनाने और लोगों की हजामत करने निकल पड़ती.
अपनी मेहनत का घर भी बनवाया, लड़कियों की शादी भी करवाई और आज 70 साल की उम्र में भी उस्तरा चलाती हैं. एक रुपये में बाल काटने से शुरू हुआ शांताबाई का सफर आज भी चल रहा है. उनके गांव में नया सैलून खुल गया है, अधिकतर बच्चे नए ज़माने का Haircut करवाने वहीं जाते हैं. शांताबाई की अब आमदनी भी उतनी नहीं होती, लेकिन वो कहती हैं कि, ‘जब तक उनके शरीर में जान है, तब तक उनका उस्तरा चलेगा’. ये बात वही इंसान कह सकता है, जिसने शून्य से शुरुआत की हो, जिसके पास खोने के लिए कुछ न रहा हो.