मैं जब पिछले सप्ताह कांग्रेस अध्यक्ष श्रीमती सोनिया गांधी के नए तेवरों के बारे में लिख रहा था तब मुझे यह अनुमान नहीं था कि उनकी इस अचानक सक्रियता के कुछ और प्रसंग लगातार देखने मिलेंगे। यह जिक्र तो मैंने पिछले कॉलम में तो किया ही था कि वे कांग्रेसजनों को लेकर पूर्व प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह के साथ एकजुटता दर्शाने उनके निवास तक गईं। इसके बाद उन्होंने लोकसभा में आंध्रप्रदेश के साथ हो रहे कथित अन्याय को लेकर सत्तापक्ष पर प्रहार किए, चौदह विपक्षी दलों का नेतृत्व करते हुए भूमि अधिग्रहण कानून पर राष्ट्रपति के पास अपना विरोध दर्ज कराने पहुंचीं, राजस्थान में जाकर किसानों से मिलीं, उसके बाद हरियाणा में किसानों से एकजुटता दिखाई और फिर रायबरेली रेल दुर्घटना के पीडि़तों से सहानुभूति व्यक्त करने अस्पताल भी पहुंचीं। यह जानने की उत्सुकता सबको है कि उनकी यह सक्रियता क्या रंग लाती है!
श्रीमती गांधी चूंकि आज देश की सर्वप्रमुख विपक्षी नेता हैं इसलिए वे सत्तारूढ़ दल के खिलाफ संसद में और संसद के बाहर अपना विरोध दर्ज कराएं तो इसमें सामान्य तौर पर आश्चर्य की कोई बात नहीं है। किन्तु बात इतनी सरल भी नहीं। यह सबने देखा है कि विगत तीन-चार वर्षों से सोनिया गांधी ने राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाना लगभग बंद कर दिया था। यह माना जा रहा था कि वे राहुल गांधी को अपनी जिम्मेदारी हस्तांतरित करने में लगी हुई थीं। जैसी कि आम धारणा बन चुकी है वे अपने इस प्रयत्न में सफल नहीं हो सकीं। राहुल गांधी को पार्टी में दूसरे नंबर का ओहदा दिया गया। उन्हें आगे बढऩे के लिए बार-बार मंच भी उपलब्ध कराया गया, लेकिन इनका कोई परिणाम नहीं निकला। इसे लेकर उनका बहुत उपहास भी किया गया, जो कि अभी तक चल रहा है। आम जनता समझ नहीं पा रही है कि राहुल गांधी की राजनीति में रुचि एवं क्षमता किस सीमा तक है।
जो भी हो, कांग्रेस में पिछले दिनों जो गिरावट आई है उसका दोष स्वयं कांग्रेसजन भी राहुल गांधी पर मढऩे लगे हैं। वर्तमान में राजनीतिक मंच से उनकी अनुपस्थिति ने भी लोगों को चक्कर में डाल रखा है। जिन्हें उनका पता-ठिकाना मालूम होगा उन्होंने भी फिलहाल चुप रहना बेहतर समझा है। इस स्थिति को देखकर यह कयास भी लगाया जा रहा है कि कांग्रेस के मौजूदा हालात देखकर सोनिया गांधी ने एक बार फिर खुद सामने आकर मोर्चा संभाल लिया है और जान-समझ कर ही राहुल गांधी को पृष्ठभूमि में भेज दिया गया है। अगर यह सच है तो इसमें हमें हैरानी नहीं है। राजीव गांधी की नृशंस हत्या के बाद सोनियाजी ने सात साल तक दलगत राजनीति से दूरी बनाए रखी थी। किन्तु जिस दिन उन्हें लगा कि कांग्रेस को पुनर्जीवित करने के लिए उनका सामने आना जरूरी है तो ऐसा करने में उन्होंने देरी नहीं की।
कांग्रेस के लिए 1997-98 एवं 2014-15 की स्थितियों में काफी समानताएं हैं। श्री नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह की युति द्वारा नवउदारवादी आर्थिक एजेण्डा लागू करने के बावजूद 1996 और फिर 1997 में कांग्रेस को पराजय का सामना करना पड़ा था। श्री राव की जगह सीताराम केसरी कांग्रेस अध्यक्ष बन गए थे, जिनकी पार्टी निष्ठा और वरिष्ठता दोनों ही पार्टी को पुनर्जीवित करने में नाकाम सिद्ध हो चुकी थी। सोनिया गांधी ने कठिन समय में पार्टी की बागडोर संभाली तब 2004 में जाकर उनकी अथक मेहनत का परिणाम सामने आया। आज फिर वैसी ही स्थिति है बल्कि तब के मुकाबले चुनौतियां अभी इस वक्त कहीं ज्यादा हैं। भारतीय जनता पार्टी के पास न सिर्फ स्पष्ट बहुमत है बल्कि नरेन्द्र मोदी के रूप में एकछत्र नेता भी है जबकि कांग्रेस के पास लोकसभा में दस प्रतिशत सीटें भी नहीं हैं।
हमारी निगाह इस ओर लगी रहेगी कि सोनिया गांधी इस पहले से ज्यादा मुश्किल समय में पार्टी का कायाकल्प किस तरह करेंगी! वे यदि राहुल गांधी को राजनीति की कठोर वास्तविकताओं से दूर रखना चाहती हैं तो अच्छी बात है, परन्तु यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि आज के संग्राम में उनके सिपहसालार कौन हैं। कांग्रेस ने जब लोकसभा में मल्लिकार्जुन खडग़े को दलनेता बनाया था तो उसका हमने स्वागत किया है। श्री खडग़े ने पार्टी अध्यक्ष द्वारा उन पर किए विश्वास को प्रमाणित भी किया है। किन्तु क्या श्रीमती गांधी दक्षिण भारत के इस दलित नेता को और अधिक जिम्मेदारियां देने तैयार हैं? श्री खडग़े के अलावा के.सी. देव, पृथ्वीराज चह्वाण, सचिन पायलट, दीपा दासमुंशी जैसे अनेक नेता हैं जो विभिन्न प्रदेशों से आते हैं और अलग-अलग आयु समूहों व सामाजिक पृष्ठभूमियों का प्रतिनिधित्व करते हैं। देखना होगा कि कांग्रेस अध्यक्ष आगे की लड़ाई में इनकी क्षमताओं का उपयोग किस रूप में करती हैं।
यह बात इसलिए उठती है क्योंकि कांग्रेस के पास वर्तमान में जो चर्चित चेहरे हैं वे अपनी प्रतिष्ठा तथा विश्वसनीयता काफी हद तक खो चुके हैं। यदि कहा जाए कि कांग्रेस की पराजय के पीछे ऐसे नेताओं का सत्तालोभ, धनलोभ और बड़बोलापन ही मुख्य कारण थे तो शायद गलत नहीं होगा। आज जब कांग्रेस पार्टी धर्मनिरपेक्षता के साथ-साथ सामाजिक न्याय की लड़ाई लडऩे की बात कर रही है, जब वह कारपोरेट बनाम किसान-मजदूर का मुद्दा उठा रही है, जब वह समाजवादी और साम्यवादी दलों के साथ मंच साझा कर रही है, तब यह आवश्यक है कि उसके पास नेतृत्व की पहली-दूसरी पंक्ति में ऐसे लोग हों जो जुझारू होने के साथ-साथ जनता के बीच में भी सम्मान के पात्र हों। मुझे लगता है कि जिस तरह छत्तीसगढ़ में टी.एस. सिंहदेव और भूपेश बघेल की जोड़ी डटकर काम कर रही है वैसा ही वातावरण कांग्रेस को पूरे देश में बनाने की आवश्यकता है।
कांग्रेस अध्यक्ष को मैदानी लड़ाई के साथ-साथ वैचारिक स्तर पर भी मोर्चा खोलने की आवश्यकता है। पी.वी. नरसिम्हा राव और डॉ. मनमोहन सिंह दोनों प्रकाण्ड पंडित थे, लेकिन उनकी दक्षिणपंथी वैचारिक रुझान कांग्रेस के लिए आत्मघाती सिद्ध हुई। अभी भी हमने देखा कि बीमा क्षेत्र में विदेशी निवेश पर कांग्रेस ने भाजपा का साथ देकर बिल पास करवा दिया। यद्यपि बाद में कोयला बिल और खनन बिल पर उसने अपना रुख बदल दिया। इससे पता चला कि कांग्रेस में वैचारिक स्पष्टता और प्रतिबद्धता का अभाव है। सोनियाजी को समझना होगा कि आनन्द शर्मा और मनीष तिवारी जैसे नेता इस लड़ाई में काम नहीं आएंगे। यह अब उनके ऊपर है कि वे अपनी टीम में किनको शामिल करती हैं।
इस बीच कांग्रेस के पक्ष में एक अच्छी बात हुई है। अभी हाल-हाल तक संघ और भाजपा के लोग सोशल मीडिया पर अत्यन्त सक्रिय थे और कांग्रेस उनके मुकाबले में दूर-दूर तक कहीं नहीं थीं। यह स्थिति बदलती न•ार आ रही है। मैं देख रहा हूं कि सोनिया गांधी की बढ़ती सक्रियता के साथ-साथ कांग्रेसजन भी सोशल मीडिया पर अचानक सक्रिय हो उठे हैं। वे संघ, भाजपा और नरेन्द्र मोदी के समर्थकों द्वारा उठाई गई बातों का तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री के दस लाख के सूट से लेकर उनकी विदेशी यात्राओं पर तीन सौ करोड़ का खर्च तथा अन्य अनेक मुद्दे वे लगातार उठा रहे हैं। कोई दिन नहीं जाता जब गुजरात मॉडल की सप्रमाण धज्जियां न उड़ायी जाती हों। यह राजनीतिक दृष्टि से एक सही रणनीति है क्योंकि युवाओं के बीच पैठ बनाने के लिए सोशल मीडिया अनिवार्य हो चुका है। इसी मुद्दे पर चलते-चलते यह भी कह दूं कि कांग्रेसजन सोशल मीडिया पर भाजपाईयों के मुकाबले अधिक संयमपूर्ण व्यवहार कर रहे हैं।