जगदलपुर
आजादी के 67 साल बाद भी आज बस्तर संभाग का एक बड़ा भू-भाग रेल कनेक्टिीविटी से दूर है। संभाग के सात में से पांच जिलों में रेललाइन नहीं पहुंचाई जा सकी है। बस्तर के लोग रेललाइन व रेलयात्री सुविधाओं की मांग करते नहीं थक रहे हैं, आंदोलनों का सहारा लेने को मजबूर होते हैं पर आजाद भारत की सरकारें बस्तरियों की आवाज अनसुनी ही करती आ रही हैं। यहां जानकार बड़ा आश्चर्य होगा कि आजादी के पहले एक वह समय भी था जब प्रथम विश्वयुद्ध के समय दुनिया के कई देश एक दूसरे के खिलाफ हथियार उठाए खून बहाने के ढर्रे पर चल निकले थे वहीं हिंदुस्तान के सबसे पिछड़े कहे जाने वाले बस्तर में अंग्रेजी हुकूमत द्वारा देश की पहली फारेस्ट ट्राम सेवा की आधारशिला रखी जा रही थी। उत्तर बस्तर से होकर पड़ोसी प्रांत ओडिशा तक विस्तारित इस ट्राम सेवा को बस्तर के आदिवासी जंगल की रेल कहते थे।
अंग्रेजों के समय इस ट्राम सेवा का उपयोग लकड़ियों को एकत्र कर ले जाने व वनोपज की ढुलाई के लिए किया जाता था। ट्राम में एक डिब्बा यात्री कोच का था। जिसमें यात्री सफर किया करते थे। लगभग सौ साल पुरानी इस रेललाइन को आज दुबारा शुरू करने की मांग जोर पकड़ रही है। खास बात यह है कि केन्द्रीय रेल मंत्रालय ने नक्सल प्रभावित बस्तर के संभागीय मुख्यालय को राजधानी से जोड़ने इसी सौ साल पुरानी रेललाइन के रास्ते को ही चुनने की पहल करते हुए रेलबजट में 2013 में शामिल किया है।
सर्वे के लिए रेल मंत्रालय ट्रेंडर भी जारी कर चुका है। सर्वे पर करीब नौ लाख रुपए खर्च होने का अनुमान है पर दुर्भाग्य है कि सर्वे को अभी तक गति नहीं मिल पाई है। इस रेललाइन को दुबारा बिछाने की मांग बहुत अरसे से की जाती रही है पर सबसे तगड़ी पहल 21 जनवरी 2012 को बस्तर के प्रतिनिधिमंडल के साथ तत्कालीन केन्द्रीय रेलमंत्री दिनेश त्रिवेदी की बैठक में हुई थी। तब बस्तर के प्रतिनिधिमंडल ने रावघाट रेललाइन के निर्माण में देरी का हवाला देते हुए रायपुर-धमतरी रेललाइन को नेरो गेज से ब्राड गेज में बदलते हुए धमतरी के नजदीक चरमुड़िया से नगरी, बोरई, माकड़ी, अमरावती, कोंडागांव, जगदलपुर तक नई रेललाइन बिछाने की मांग रखी थी।
साल 2011 में जगदलपुर से नईदुनिया की टीम ने लिकमा से धमतरी तक सौ साल पुरानी रेललाइन के रास्ते में सफर कर जगह-जगह लोगों से बात कर ट्राम सेवा से जुड़े तथ्यों को एकत्र किया था। दो दिन तक माकड़ी, नगरी, बोरई, मेघा, दुगली आदि रास्ते में पड़ने वाले कस्बों में रुककर काफी जानकारियों एकत्र की थी। जानकारियां सामने आने के बाद महसूस किया गया कि यदि रेल मंत्रालय चाहे तो पुरानी रेललाइन के रास्ते पर ही नई रेललाइन आज भी बिछाई जा सकती है। यदि इस मार्ग को राजनीतिक इच्छाशक्ति दिखाते हुए बस्तर के हित में पूरा कर लिया जाता है तो ऐसा होनें पर बस्तर के विकास को नई उंचाईयां मिलेंगी। नईदुनिया की टीम ने मौके पर पहुंचकर तथ्यों को एकत्र करने के बाद सौ साल पहले इस ट्राम सेवा से जुड़े एक कर्मचारी जो गार्ड के पद थे उनके परिवार के सदस्यों से चर्चा कर कई दस्तावेज हासिल किए और नई जानकारियां भी बटोरी। तीन साल पहले छुरा में कृषि विभाग में कार्यरत रहे शुक्ला परिवार के धनंजय शुक्ला के ट्राम सेवा से जुड़े करीब एक दर्जन दस्तावेजों सहित 11 जून 2012 को नईदुनिया जगदलपुर को पत्र भेजकर कई महत्वपूर्ण जानकारियां उपलब्ध कराई हैं।
चरमुड़िया से थी रेललाइन
नईदुनिया ने अपने दौरे में जो जानकारियां एकत्र की उसके अनुसार करीब सौ साल पुरानी यह रेललाइन धमतरी के कुरूद के निकट चरमुड़िया नामक स्थान से बस्तर की ओर मुड़ती थी। इसका पहला स्टेशन मेद्या था। वहां से यह ट्राम लाइन दुगली, साकरा, नगरी, फरसिया, एलाव्ली, लिकमा तक जाती थी। दुगली में एक आरा मशीन लगाई थी। जो भाप से चलती थी। इसी आरा मशीन पर लकड़ी के स्लीपर तैयार किए जाते थे। उस समय पूरे देश में रेललाइन बिछाने का काम चल रहा था जिसके लिए लकड़ी के स्लीपर बस्तर से भी भेजे जाते थे।
इस ट्राम लाइन की सबसे खास बात यह थी इसके रास्ते में कहीं भी बड़े पुल नहीं थे। जो पुल थे भी वह काफी छोटे व कांक्रीट के थे। रेललाइन सीतानदी व उदंती अभ्यारण के बीचोबीच से होकर गुजरती थी। ट्राम सेवा को चलाने के लिए रास्ते भर हर पांच-दस किलोमीटर की दूरी पर कुंआ बनाया गया था।
रास्ते में इंजन में पानी भरकर भाप के इंजन को चलाया जाता था। आज भी जंगलों में कई कुएं और स्टेशन के जर्जर भवन खंडहर अवस्था में मौजूद हैं। जो बस्तर की इस ऐतिहासिक गौरवशाली रेलवे की ट्राम सेवा के गवाह बने हुए हैं। आज भी जंगल में जहां से रेललाइन गुजरती थी वहां पीडब्ल्यूडी विभाग ने सड़क बना ली है जो सीधी रेखा के समान नजर आती है। रास्ते में जिन बुजुर्गों से बात हुई उन्होंने अपने पुरखों से इस रेललाइन के बारे में सुनी बातों को बड़े ही गर्व के साथ हमारे साथ बांटा।
29 हजार यात्रियों ने की थी रेल यात्रा
नईदुनिया के पास मौजूद अंग्रेजों के जमाने के दस्तावेजों के अनुसार 1929-30 के दौरान इस ट्राम सेवा से 29685 यात्रियों ने सफर किया था। जिनसे किराए के रूप में करीब 18 हजार रुपए वसूले गए थे। 1941 आते-आते कंपनी भारी घाटे में चली गई और 19 नवंबर 1941 को इस ट्राम सेवा से यात्री परिवहन पूरी तरह बंद कर दिया गया।
सभी स्टेशनों में नोटिस चिपका दिया गया कि जो यात्री जिस ओर भी जाएंगे उन्हें वापसी का टिकट नहीं मिलेगा। अंग्रेजों का मानना था कि यात्रियों की वजह से सप्लाई की जाने वाली लकड़ियों का कोटा कम पड़ रहा है और ट्राम से लक्ष्य के अनुरूप लकड़ी की सप्लाई नहीं हो रही है। बस्तर में ट्राम सेवा की स्थापना व संचालन बिट्रिश कंपनी गिलेंडर आर्थोथोट का था। इसी कंपनी ने हिमालयन दार्जिलिंग रेलवे का काम शुरू किया था। जिसका मुख्यालय उस समय कलकत्ता हुआ करता था। आज यह कंपनी देश में टेक्सटाईल उद्योग से जुड़ी हुई है।
मुनाफे से घाटे में चली गई थी ट्राम सेवा
लकड़ी की सप्लाई के लिए संचालित रेलवे की ट्राम सेवा 1926-27 तक फायदे में थी। उस वक्त ट्राम सेवा से करीब 60 हजार रुपए की कमाई हुई थी लेकिन 1931 आते-आते कंपनी 26 हजार रुपए से अधिक के घाटे में चली गई। यह ट्राम सेवा पूरी तरह से वन विभाग के अधीन थी। आज भी अंग्रेजों के जमाने में इस रेललाइन के रास्ते में बनाए गए रेल अधिकारियों-कर्मचारियों के कुछ गेस्ट हाऊस आज भी मौजूद हैं।
खंडहर हो चुके इन गेस्ट हाउसों को मरम्मत कर ठीक कर लिया गया है। गेस्ट हाऊसों की संख्या करीब आधा दर्जन हैं जो आज भी वन विभाग के अधीन ही हैं। इन गेस्ट हाउसों और स्टेशन बिल्डिंग तथा ट्राम सेवा से जुड़े अफसर-कर्मियों के बंगले अंग्रेजों के समय की डिजाइन व वास्तु के मुताबिक ही हैं। नगरी से लेकर चरमुड़िया के बीच जंगलों में इन जर्जर हो चुके भवन यहां-वहां अवस्थित हैं।
बगदाद भेज दी गई थी बस्तर की रेललाइन
द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अंग्रेजों को जब इराक में तेल सुविधा की जरूरत पड़ी तो उन्होंनें यहां की पटरियां, लोको व अन्य चीजें उखाड़कर इराक की राजधानी बगदाद भेज दी। बस्तर के वनवासियों ने अंग्रेजी सल्लतनत से ट्राम सेवा बंद न करने की अपील की थी मगर यह सेवा दुबार नहीं शुरू हो पाई।
2 मार्च 1942 को ट्रामवे के कर्मचारियों को अंग्रेज सरकार की ओर से एक नोटिस भेजी गई जिसमें कहा गया कि युद्ध सेवाओं के लिए पटरियां उखाड़ी जा रही हैं और पूरी ट्राम सेवा को ही स्थानांतरित किया जा रहा है। कर्मचारियों-अधिकारियों का बकाया दे दिया जाएगा। दस्तावेज बताते हैं कि पहले अंग्रेजों का इरादा ट्राम सेवा की बजाय राजिम की रेललाइन उखाड़ने की थी लेकिन राजिम के पर्यटन व धार्मिक महत्व को देखते हुए बाद में ट्राम सेवा को ही हटाने का निर्णय लिया गया।