पढ़े लेखिका – वीना सिंह का लेख.. समस्याओं से घिरा समाज

 

हमारा समूचा समाज समस्याओं से ग्रसित है। हर किसी का जीवन उथल-पुथल से भरा पड़ा है। न चाहते हुए हम अनेकों समस्याओं का सामना करते रहते है। नित नई अनचाही समस्याएं उत्पन्न हो जाती हैं। यह समस्याएं अनेको रूप में होती हैं जैसे- हिंसा  हत्या या आत्महत्या ए बलात्कार ए भ्रश्टाचार और भी अनेको ऐसे छोटे-बड़े अपराध एवं उनसे जुड़ी परेषानियों सामने आती रहती हैं जोकि पूरे समाज की जड़े हिला कर रख देती है। कहीं न कहीं हम सब इन परेषानियों के लिए जिम्मेदार हैं। जब कोई समस्या अचानक सामने ंआ जाती है तब सड़क से संसद तक षोर सुनाई देता है तब लगता है कि इसका निराकरण हो के ही रहेगा। धीरे- धीरे षोर मध्यम पड़ते पड़ते षांत हो जाता है और समस्या जस की तस रह जाती है। हर समस्या के लिए नया कानून बनाने की बात के साथ पूर्ण रूपेण विराम लग जाता है। प्रत्येक समस्या के लिए नये कानून की आवष्यकता नहीं है समस्या के सिलसिले पर नये सिरे से सोचना जरूरी है। उसके समाधान पर ध्यान केंद्रित करना जरूरी है।

समाज को स्वस्थ करने वाली विचार प्रक्रिया थमी हुई है न तथ्य पर आधारित तर्क न विवेक।  केवल कुरीतियां ए मूढ़ताएं और भ्रामक मान्यताएं बची रह गई हैं। हां इसे हम सामाजिक कुपोशण ही कहेंगे जहां मंदिर मस्जिद को मुद्दा बनाया जाता है जहां जाति पाति के नाम पर मार काट मचा देते है। सती प्रथाए बाल विवाह ए स्त्री प्रताड़ना ए बाल मजदूरी ए बंधुआ मजदूरी ए सांप्रदायिक अंधापन आदि ऐसी बातों एवं ऐसी रीति रिवाजों को प्रश्रय देने वाले समाज को स्वस्थ और सभ्य कदापि नहीं कहा जा सकता। जो समाज मनोविकार से ग्रस्त महिला का इलाज कराने के बजाय उसे डायन समझ कर पत्थर से मार देता है। मौलिकता रचनात्मकता के लिये तो जैसे कोई जगह ही नहीं बची ए बच्चों को नए प्रयोग करने की आजादी नहीं उनके लिए तो रास्ते एवं मंजिले तय है। अपने जैसा सोचने या करने पर लाख बाधाएं पैदा कर दी जाती है। ऐसा समाज कुपोशित ही होता है। बात किसी एक गांव षहर या जाति की नहीं है यह समस्या पूरे समाज की है। सामाजिक कुपोशण के कारण आज के समाज में जीवन को समाप्त करने की प्रवृत्ति बढ़ रही है।

कोई तो अपना जीवन समाप्त कर रहा है तो कोई दूसरांे का जीवन समाप्त करने पर उतारू है। हमारे परिवारों में बदलाव की ऐसी लहर दौड़ी है कि आपसी सूझ बूझ का दौर ही समाप्त हो गया है। लोग अपने काम मेंए अपने आप मे सिमट कर रह गये हैं। कोई किसी के साथ रहने – जीने को तैयार ही नहीं है। समझना मुष्किल है कि लोग किस खौफ से घिर कर रिस-रिसकर मर रहे है। इसे समय पर समझना और रोकना आवष्यक है नहीं तो यह पूरा समाज मायूसियों के बोझ तले दबा ऐसा समाज बन जायेगा जिसकी उमंगे और आषाएं दम तोड़ चुकी हांेगी। इसलिए समय रहते चेतना जरूरी है।

इस विकट सामाजिक समस्या यानि सामाजिक कुपोशण से निजात तब मिलेगी जब हम सब मिलकर समाज को स्वस्थ व सुपोशित करने के लिए पुरजोर प्रयास कंरें। हमारा यह जीवन समाज का दिया हुआ है। हमारा अस्तित्व सामाजिक है हमारा सर्वस्व अभिन्न रूप से हमारे समाज के साथ जुड़ा हुआ है। यदि हम स्वयं को एक अलग इकाई मानकर अपनी उन्ननि और विकास के लिए सोचकर कार्य करते रहेंगे हमें निराष ही रहना पड़ेगा।

इसलिए मिलजुल कर समाज को सुपोशित करने के लिए – स्वस्थ विचार प्रक्रियाए तर्कपूर्ण संवेदनषील संवादए स्वस्थ परंपराएंए विवेकपूर्ण जीवन की ओर अग्रसर करते रीति- रिवाज ए सहयोग ए आपसी विष्वासए सृजनषीलता आदि को अपनाने की आवष्यकता है। सामाजिक से निजात पाने के लिए सामूहिक भावना ही आधारषिला है। व्यक्तिगत विचार संर्कीणता का द्योतक हैं और संर्कीणता से समाज का विकास संभव नहीं हैं। समाज के लिए प्रत्येक व्यक्ति को व्यक्तिगत भोगों विलास- लिप्साओं को त्याग कर समाज को परिपुश्ट बनाने के बारे में सोचना चाहिए परन्तु यदि सोच की दिषा इसके विपरीत हुई तो समाज की दषा बिगड़ेगी ही और ऐसी स्थिति में समाज कुपोशण का षिकार अवष्य होगा।

एक स्वस्थ समाज स्थापित करने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को बदलना जरूरी है। हमें अपने समाज को कुपोशण से बचाने के लिए जनचेतना को जगाना होगा। जिससे लोग स्वस्थ समाज की प्रमुखता को समझ सकें और इस सामाजिक कुपोशण रोककर स्वस्थ षरीरए स्वच्छ मन एवं सभ्य समाज का आधार विकसित कर सकें। क्योंकि जब व्यक्ति परिवर्तित होगा वह अपने परिवार को परिवर्तित करेगा तो समाज अवष्य परिवर्तित होगा। इस प्रकार हमारा संपूर्ण समाज स्वस्थ एवं विकार रहित हो सकेगा।

लेखिका – वीना सिंह

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