आस्था ग्राम्य देवी के रूप में विराजमान हैं सिद्धिदात्री मां कौशलेश्वरी देवी

आस्था और संस्कृति का प्रतीक ग्राम कोसीर

लक्ष्मीनारायण लहरे युवा साहित्यकार ,समीक्षक, पत्रकार

रायगढ

कोसीर से गोल्डी कुमार 

जिले के सबसे बडे गाॅव कोसीर सारंगढ विकास खण्ड से महज 16कि मी दूर पश्चिम दिशा में स्थित है। भौगोलिक दृष्टि से ग्राम कोसीर का बसाहट रायगढ जिले के अंतिम छोर पर है। उत्तर दिशा में महानदी जो जांजगीर चाम्पा सरहद को जोडती है और वर्तमान में नये जिले बलौदाबाजार सरहद से सटा है। ग्राम कोसीर ऐतिहासिक नगरी है शासन प्रशासन की नजरों से अछूता रहा है इतिहास पर गौर किया जाये तो ग्राम कोसीर ऐतिहासिक गांव है जहां सत्रहवीं शताब्दी की मूर्ती की अवशेष यत्र तत्र बिखरे पडे हैं। कोसीर के मध्य में मां कौशलेश्वरी देवी की मंदिर स्थित है, कोसीर को ग्रामीण पर्यटन के रूप में स्थापित किया जा सकता है पर्यटन की आपार संभावनायें है लेकिन रायगढ जिले के अंतिम छोर पर बसाहट के कारण शासन प्रशासन और साहित्यकारों के नजर से कोसों दूर है। छत्तीसगढ के बुद्धजीवी साहित्यकारों को अध्ययन करने की आवश्यकता है यही नहीं रायगढ जिला के साहित्य में कोसीर के मंदिर का जिक्र भी नही होता जबकि कोसीर की मां कौशलेश्वरी देवी की मंदिर ऐतिहासिक और प्राचीन मंदिर है।

रायगढ जिले के पुरातत्ववेता साहित्यकार स्वर्गीय पंडित लोचन प्रसाद पाण्डे जी साहित्यकार ईश्वर शरण पाण्डे जी ने भी कोसीर मंदिर का अपने लेखों में कभी कभार जिक्र किये हैं वर्ष 2011में श्री श्री अग्नि शिखा महाराज जी कोसीर मंदिर दर्शन करने पहुॅचे थे तब उन्होंने मां कौशलेश्वरी देवी की मूर्ति को देखते ही बोल उठे कि मां कौशिकी देवी है जिसे आप लोग कौशलेश्वरी देवी के रूप में पूजते हैं यही नहीं छत्तीसगढ के रामायण के लेखक डाॅ मन्नूलाल यदु ने कोसीर पहुॅचकर गांव को घूमे और बैठक लेकर बताये कि कोसीर का जिक्र वाल्मिकी रामायण में है। कोसीर का पौराणीक नाम कुशावती है श्री राम भगवान कौशल क्षेत्र में वन गमन किया था तब राज किये थे राम भगवान के पुत्र कुश की नई राजधानी कोसीर रहा है यहाॅ कुश ने राज किया है। वाल्मिकी रामायण उत्तर कांड 107 सर्ग श्लोक 17 एवं 18 से –

कोशलेषु कुशं वीरमुत्तरेषु तथा लवम ।
अभिषिच्य महात्मानावुभौ रामः कुशीलवौ ।।
अभिषित्क्तौ सुतावंके प्रतिष्ठाप्य पुरे ततः ।
परिष्वज्या महाबाहुर्मूध्नर्यु पाघ्राय चासकृत ।।

इतिहास के आईने में माॅ कौशलेश्वरी देवी -एक अपूर्व आकर्षक ,आध्यात्मिक वातावरण जहाॅ भेद विभेद भौतिक जगत से परे सिद्धिदात्री के रूप में विराजमान माॅ कौशलेश्वरी देवी का एक अलौकिक संसार है और वह है ऐतिहासिक नगरी कोसीर छत्तीसगढ के रायगढ जिला के गांव कोसीर चित्रोत्पल्ला महानदी के पावन तट पर स्थित है प्राकृतिक सौंदर्य से परिपूर्ण कोसीर प्राचीन संस्कृति व इतिहास का मूक साक्षी है। जगत जननी माॅ कौशलेश्वरी की अपूर्व छवि एवं अनंत शक्ति पर भारतीय मनीषा आधारित है। अनंत सौन्दर्य और विपुल उर्जा के प्रतीक ढुकुलिया तालाब के उपर यह मंदिर स्थित है। जीवन के संघर्ष में सदैव मातृकृपा से विजय श्री ही हाथ लगती है इस भाव के सम्बल को लेकर भारतीय मानस ने अनेक मातृ उपासना केन्द्रों का निर्माण किया जिसमें चन्द्रपुर की मां चन्द्रहासिनी का धाम कोरबा की सर्वमंगला ,मल्हार की डिंडनेश्वरी डोंगरगढ बम्बलेश्वरी सारंगढ समलाई रायगढ बूढीमाई कोसीर की मां कुशलाई दाई(कौशलेश्वरी देवी )का मंदिर अलौकिक स्थान हैं जहां माॅ की पूजा अर्चना के लिये दूर दराज से लोग आते हैं और अपने को धन्य मानते हैं।
मंदिर का इतिहास -ग्राम कोसीर पुरातत्विक महत्व की सामग्री से युक्त प्राचीन वैभवशाली सांस्कृतिक भूमी का एक अप्रमित व अछूता सा अध्ययन है। यहां लगभग 11वीं शताब्दी की कल्चुरी कालीन सभ्यता के अवशेष पर्याप्त मात्रा में सुदूर क्षेत्र में फॅसे हुये है। ग्राम का मध्य भाग उभरे टीले की तरह है। जिसके चारों ओर प्राचीन समय में खाइयाॅ रही होगी जो अब छोटे छोटे तालाब के रूप में शेष रह गई है।
स्थानीय लोगों के बीच रंगसगरा ,रंजीता ,अर्थात पुराने रजवाडों से संबंधित रण का सागर और रण अर्थात युद्ध की विजय है।
ये स्थल युद्ध स्मारकों का बोध कराते हैं। इसके पश्चात मडफोड जैसे सामान्य अवशेष दृष्टिगोचर होते हैं। समय समय पर इन तालाबों में हड्डियों के अवशेषों से ग्रामीणों द्वारा मिट्टी उत्खनन के समय विभिन्न प्रकार की छोटी बडी मूर्तियाॅ प्राप्त होती रहती है।प्रमुख मूर्ति प्राचीन लाल व भारी बडी पत्थरों के नींव पर आधारित माॅ कौशलेश्वरी का मंदिर है यह मूर्ति महिषासुर मर्दिनी देवी की है इसकी विशेषता है कि इसमें देवी असुर का वध कर रही है। जो मध्य में है जिसके नीचे देवी का वाहन सिंह खडा मां के पैरों से जुडा हुआ है। देवी की मूर्ति सम्पूर्ण श्रृंगारिक है।इसमें उन्हें त्रिशूल धारण किये हुये दर्शाया गया है।
कलात्मकता की दृष्टि से देवी की मूर्ति के समीप ही अव्यवस्थित पत्थर का चैकोर स्तंभ लगभग 10फिट उॅचा है आसन के समान चार पैरयुक्त मढिया,दिवारों के पत्थरों पर बनी पद्म सदृश्य फूलों की आकृतियाॅ मंदिर के दरवाजे के पास कडियो की श्रृंखला के समान नक्काशी प्राचीन काल की वास्तुकलाप्रियता को अभिव्यक्त करते हैं।
मंदिर के अवशेष के रूप में प्राचीन नींव आज भी आयताकार भारी पत्थरों से निर्मित है। सम्पूर्ण ग्राम में इस प्रकार के पत्थर स्तंभ के टुकडे ,खण्डित मूर्तियाॅ यत्र तत्र बिखरे पडे हैं।
नवरात्रि पर्व के सप्तमी और अष्टमी को भक्त लोट मारते दूर – दूर गांव से मंदिर दर्शन को आते है। लोंगों में आस्था और विश्वास है कि माॅ के दरबार में अविवाहित कन्या माॅ की उपवास रखती है तो इच्छित वर की प्राप्ति होती है वही संतान की भी प्राप्ति होती है । पर्व में माॅ के दरबार में जो मनोकामना ज्योतिकलश प्रज्जवलित करते थे उन्हे बकरे की बली देनी होती थी पर 1990 के दशक से यह प्रथा अब विलुप्त हो गई है और हर कुॅवार नवरात्रि पर नवमी के दिन 03 बकरे की बली दी जाती है । यहाॅ आदिवासी बैगा आदि काल से पुजारी के रूप में है उन्ही के पूर्वज आज भी पूजा – पाठ कर रहे है ।