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‘राम’ शब्द ‘रम’ धातु (क्रिया) में घंय प्रत्यय लगाने पर निष्पन्न होता है।
रम का अर्थ है : रमना, रमण करना। ‘रमन्ते यत्र योगिनः स रामः’। हर क्षण योगी जिसमें रमण करते हैं, वह राम हैं। या ‘रमते य: कणे-कणे स रामः’। अर्थात जो ब्रह्माण्ड के कण कण में रमता है, वह राम है।
राम की महिमा का वर्णन करते हुए किसी संस्कृत कवि ने कर्ता से लेकर संबोधन तक सभी कारकों तक हर पंक्ति के प्रथम शब्द में विलक्षणता प्रस्तुत की है–
रामो राजमणि सदा विजयते
रामम रामेशं भजे।
रामेणाभिहता निशाचर चमु:
रामाय तस्मै नमः।
रामान्नास्ति परायणं परतरं
रामस्य दासोSस्मिहम।
रामे चित्तलय: सदा विजयते
भो राम ! मामुद्धर।।
राम केवल दशरथ के पुत्र राजा राम ही थे अथवा राम परब्रह्म थे ?–इस पर चर्चा कर पाना असम्भव-सा है। समूचे विश्व की बात छोड़कर केवल भारतवर्ष और उसके वाङ्गमय की बात करें तो इस विषय में ही मत-मतान्तर देखने को मिल जाएंगे। कोई तो उन्हें ‘परब्रह्म’ के रूप में जपता है तो कोई उन्हें दशरथ पुत्र प्रतापी राजाराम ही मानता है। राम के समकालीन कवि महर्षि वाल्मीकि ने राम को, उनके व्यक्तित्व को, उनके कृतित्व को, पौरुष और पराक्रम और उनकी मर्यादा को जितनी निकटता और प्रामाणिकता के साथ देखा, जांचा, परखा और अपने रामायण महाकाव्य में बड़ी बारीकी से वर्णन किया, वैसा अन्यत्र नहीं मिलता।
बहरहाल, राम ने अपनी शक्ति और अपने पराक्रम के बल पर उस समय के महापराक्रमी राक्षस कुलाधिपति रावण के इतने विशाल साम्राज्य को धूल धूसरित कर पृथ्वी के समस्त राक्षस कुल का विनाश कर डाला। एक मिनट को हम यह मान भी लें कि राम परब्रह्म नहीं थे। फिर भी इससे कौन इनकार कर सकता है कि हर युग में शक्ति की ही पूजा होती आयी है। संसार का सबसे बलशाली राजा उस समय रावण ही था, यद्यपि उसे भी किष्किंधा नरेश बाली ने पराजित कर रखा था, महाराज दशरथ के मान-सम्मान को भी बाली ने मर्दन किया था, परन्तु दशरथ और बाली के राज्य-क्षेत्र बहुत छोटे थे, सीमित थे। जबकि रावण आंध्रालय (ऑस्ट्रेलिया) से लेकर जावा, सुमात्रा, पूर्वी द्वीप समूह, लंका से लेकर दक्षिण अफ्रीका और दक्षिण अमेरिका के बहुत बड़े भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमा चुका था। मध्य में लंका उसके राज्य की राजधानी थी। उसने जानबूझकर एक विशेष रणनीति के तहत भारतवर्ष के उत्तरी भू-भाग को जिसको आर्यावर्त कहा जाता था, छोड़ रखा था। लेकिन दक्षिणी भू-भाग के बहुत बड़े हिस्से पर जिसे ‘दक्षिणारण्य’ कहा जाता था, पर उसने अधिकार कर रखा था जिसको अपनी बहन सूर्पनखा के देखरेख में छोड़ रखा था।
रावण का एक ही उद्देश्य था पृथ्वी के समस्त भू-भागों को एक शासन, एक झंडे के नीचे लाना। “वयं रक्षाम” : उसका उद्घोष था। रक्ष-संस्कृति उसकी पहचान थी। ऐसे महान पराक्रमी शासक को पराजित कर देने वाले राम सारे संसार के लिए पूज्य बन गए।
ऐसा कहा और माना जाता है कि सूर्यवंशी राजा ययाति, दिलीप, रघु, अज दशरथ की महान परम्परा वाले कुल में जन्म लेने वाले राम विष्णु भगवान के सातवें अवतार के रूप में माता कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न उनके भाई थे जिन्हें वे अपने से भी अधिक स्नेह देते थे। उनकी गाथा भारत में ही नहीं, विश्व के अनेक देशों में चारों ओर उस समय गायी जाती थी। इंडोनेशिया जो आज मुस्लिम देश है, वह आज भी राम को अपना पूर्वज मानता है। समय-समय पर विश्व का इतिहास बदला, भूगोल बदला, मान्यताएं बदलीं, परमपरायें बदली लेकिन नहीं बदले और नहीं बदलते हैं तो वे हैं पूर्वज। कभी किसी के पूर्वज नहीं बदलते।
इस पृथ्वी पर मानव को सबसे पहले नियम और नीति में बांधने के लिए मनु ने प्रयास किया था। एक मर्यादा की सीमा रेखा में मानव समुदाय को रखने का प्रयास आरम्भ किया था जिसे उनके बाद राम ने आगे बढ़ाया। उन्होंने चरित्र, और आचरण को मर्यादा में बांधने का प्रयास ही नहीं किया, बल्कि स्वयं एक राजा के रूप में, बड़े भाई के रूप में, पुत्र के रूप में और सामान्य नागरिक के रूप में उन सभी मर्यादाओं का पालन भी किया जिन्होंने सारी मानवता को उज्ज्वल मार्ग दिखाया।
राम को केवल मर्यादा की रक्षा के लिए ही नहीं जाना जाता, बल्कि उस समय के आर्य समुदाय और उनकी यज्ञ-याग जैसी श्रेष्ठ परम्पराओं को राक्षसों द्वारा नष्ट होने से भी बचाया था। धर्म, कर्म, शील, आदर्श और आचरण को सर्वोपरि मानने वाले राम ने प्रजा की भवनाओं को भी बहुत अधिक महत्व दिया। लंका के राजा रावण के वैदेही के अपहरण कर ले जाने और अशोक वाटिका में एक साधिका के रूप में सरल जीवन व्यतीत करने वाली सीता की अग्निपरीक्षा करने और एक धोबी के कहने पर अपनी गर्भवती पत्नी को गृहत्याग कराने में भी उन्होंने अधिक समय नहीं लगाया। प्रजा-पालन और रामराज्य की स्थापना करना उनके जीवन-काल का सबसे उल्लेखनीय उदाहरण था।
अगर विचार पूर्वक देखा जाय तो राक्षसी शक्तियों का विनाश और धर्म, शील और आदर्श की मर्यादा की स्थापना के लिए ही भगवान विष्णु ने राम के रूप में अवतार लिया था। आज सारा संसार महारानी कैकेयी को राम के वनवास के लिए दोष देता है, परन्तु ऐसा नहीं है। कैकेयी महान थी। शिवजी की तरह समुद्रमंथन से निकले भयंकर विष को उन्होंने भी पिया था। राम के वनवास का सारा दोष उन्होंने अपने ऊपर ले लिया। लोक निंदा का जहर उन्होंने गले के नीचे उतार लिया। भगवान राम को ज्ञात था कि यह दिखने में काला कृत्य (परन्तु महान उद्देश्य को पूर्ण) करने को कोई सहज तैयार न होगा। इसके लिए राम ने माता कैकेयी से गुप्त मन्त्रणा करके वनवास में भेजने और स्वयं लोकनिंदा का विष पीने के लिए उन्हें सहमत करा लिया।
राम ने ऊंच-नीच की बुराई को भी कभी महत्व नहीं दिया। केवट को गले लगाया, भीलों के बीच मे रहकर, जनजातियों के लोगों को अपनाया। वननर (वानर) और भालू प्रजाति के जनजाति के लोगो से कंधे से कंधा मिलाकर उन्हें अपना मित्र बनाकर लंका पर आक्रमण किया।
अपने विरोधी को भी महत्व देना उनके व्यक्तित्व की विशिष्ट पहचान थी। रावण के पांडित्य के कारण उसको भी रामेश्वर में शिवलिंग की स्थापना करने के लिए सादर राजी कर लेना उनके व्यक्तित्व का एक विलक्षण गुण था।
मर्यादा पुरुषोत्तम राम ने अपने जीवन के रूप में ऐसा उदाहरण प्रस्तुत किया है जो युगों-युगों से आदरणीय रहा है और जब तक यह पृथ्वी रहेगी, गंगा-यमुना में पावन जल प्रवाहित रहेगा, जब तक यह मानवता रहेगी तब तक उनका नाम बड़े आदर के साथ लिया जाता रहेगा। संसार की हर वस्तु नष्ट होने वाली है, जो जन्मता है, उसका भौतिक अस्तित्व एक-न- एक दिन समाप्त होता ही है। पर राम और कृष्ण जैसे व्यक्तित्व कभी नष्ट नहीं होते। वे अपने कृतित्व में सदैव जीवित रहते हैं। मानव का जन्म लेकर देवत्व की ओर बढ़ना, नर से नरोत्तम और पुरुष से पुरुषोत्तम बनना ही उसकी इस धरती की परम उपलब्धि है।
ज्योतिर्विद पं० शशिकान्त पाण्डेय
9930421132