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कांगड़ा घाटी, हिमाचल प्रदेश से क़रीब 35 किलोमीटर की दूरी पर स्थित ज्वालादेवी मंदिर के बारे में कहा जाता है कि यहाँ माँ शक्ति की नौ ज्वालाएँ प्रज्ज्लित हैं। माना जाता है कि देवी सती की जीभ इसी जगह गिरी थी। कालीधर पर्वत की शांत तलहटी में बसे इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ देवी की कोई मूर्ति नहीं है। बल्कि यहाँ धधकती ज्वाला बिना घी, तेल दीया और बाती के लगातार जलती रहती है। यह ज्वाला पत्थर को चीरकर बाहर निकलती आती है। कहा जाता है कि अकबर ने इस जलती ज्वाला को बुझाने के लिए कई कोशिशें कीं, लेकिन ज्वाला रुकी नहीं। जब अकबर को यह महसूस हुआ कि वह कोई शक्ति है, तो अकबर ने देवी के लिए विशेष तौर पर सोने का छत्र बनवाकर चढ़ाया। लेकिन सोने का वह छत्र दूसरी धातु से बदल गया। वो छत्र आज भी वहीं रखा हुआ है।
वास्तुकला
मंदिर में विशालकाय चाँदी के दरवाज़े हैं। इसका गुंबद सोने की तरह चमकने वाले पदार्थ की प्लेटों से बना है। मुख्य द्वार से पहले एक बड़ा घंटा है, इसे नेपाल के राजा ने प्रदान किया था। पूजा के लिए मंदिर का आंतरिक हिस्सा चौकोर बनाया गया है। प्रांगण में एक चट्टान है, जो देवी महाकाली के उग्र मुख का प्रतीक है। द्वार पर दो सिंह विराजमान है। रात को सोने से पहले की जाने वाली आरती का विशेष महत्त्व है। यह आरती बेहद अलग होती है।
मार्ग
ज्वालादेवी मंदिर पहुँचने के लिए नजदीकी एयरपोर्ट कुल्लू और रेलवे स्टेशन कालका है। कुल्लू से ज्वालादेवी मात्र 25 किलोमीटर और कालका से 90 किलोमीटर की दूरी पर है। धर्मशाला से यह स्थल क़रीब 30 किलोमीटर की दूरी पर है। दिल्ली से ज्वालादेवी की क़रीब 350 किलोमीटर है।