नई दिल्ली
अगली बार मुर्गे के लेग पीस का लुत्फ उठाते वक्त सोचें कि कहीं यह आपको ऐंटिबायॉटिक्स प्रतिरोधी तो नहीं बना रहा। अमेरिकन रिसर्चर्स ने ताजा स्टडी में पाया है कि 2030 तक भारत के लोग हर साल स्ट्रॉन्ग ऐंटिबायॉटिक दवाएं खिलाकर तैयार किया गया 4,743 टन चिकन खा रहे होंगे।
‘प्रसीडिंग्स ऑफ द नैशनल अकैडमी ऑफ साइंसेस’ जर्नल में छपी स्टडी में कहा गया है कि भारत ने साल 2010 में ऐंटिबायॉटिक्स वाला 2,066 टन चिकन इस्तेमाल किया। इस हिसाब से देखा जाए तो 2030 तक भारत ऐसा चिकन इस्तेमाल करने वाला दुनिया का चौथा सबसे बड़ा देश बन जाएगा। चीन इस लिस्ट में नंबर वन होगा।
पिछले साल सेंटर फॉर साइंस ऐंड इन्वायरनमेंट ने दिल्ली और एनसीआर से लिए 40 फीसदी चिकन सैंपल्स में ऐंटिबायॉटिक्स पाए थे। खाने के लिए कमर्शली पैदा किए गए मुर्गे-मुर्गियों को ऐंटिबायॉटिक्स दिए जाते हैं। इन्हें जानवरों के लिए तैयार ऐंटिबायॉटिक्स भी दिए जाते हैं और इंसानों वाले भी। ऐसा इसलिए किया जाता है, ताकि वे बीमारियों से बचे रहें और तेजी से बड़े हों।
जब इस तरह से तैयार मुर्गे खाए जाते हैं, तो ऐंटिबायॉटिक के अंश इंसानों भी चले जाते हैं। इससे धीरे-धीरे इंसान का शरीर उन ऐंटिबायॉटिक्स के लिए भी प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर देता है। इससे होता यह है कि किसी बीमारी के इलाज के लिए जब डॉक्टर आपको वह ऐंटिबायॉटिक्स देते हैं, वे काम नहीं करते।
कंज्यूमर राइट्स ऐक्टिविस्ट्स का कहना है कि समस्या गंभीर हो रही है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गनाइजेशन के आंकड़ों के मुताबिक साल 2013 में भारत में 58 हजार लोगों की मौत ऐंटिबायॉटिक्स रेजिस्टेंट होने की वजह से हुई। इस हिसाब से देखें तो 2050 में 20 लाख में से एक मौत की वजह यही होगी।
साउथ कोरिया और यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों ने इस तरह के चिकन पर बैन लगा दिया है। हाल ही में मैडॉनल्ड ने भी ऐलान किया था कि वह इस तरह के ऐंटिबायॉटिक देकर तैयार किया गए गए चिकन सर्व करना बंद कर देगा।