
नई दिल्ली/दिव्यांश रॉय. देश की जनता के लिए एक नया बुद्धिजीवी जो बिहार के लोगों के लिए स्वप्रेरित होकर काम कर रहा है..प्रशांत किशोर! पहली नज़र में उनकी छवि कुछ उसी तरह बन रही है, जैसी कभी दिल्ली के पूर्व मुख्यमंत्री की बनी थी. अब देखना ये है कि बिहार की जनता “आप” से “जन सुराज” को कितना अपनाती है. जैसा कि कहावत है, दूध का जला छाछ भी फूँक-फूँक कर पीता है. चुंकि प्रशांत किशोर तकनीक से युक्त, सभी वर्ग और विचारधाराओं से जुड़ रहे हैं, ये आसान नहीं होगा कि राष्ट्रीय दल उन्हें नजरअंदाज़ कर पाएँ.
प्रशांत किशोर, जिन्हें लोग पीके के नाम से जानते हैं, पहले एक सफल चुनाव रणनीतिकार के रूप में मशहूर थे. लेकिन आज वो स्वयं राजनीति में प्रवेश कर चुके हैं, जन सुराज के माध्यम से. उनका सफर एक नये दल का गठन नहीं, बल्कि शासन व्यवस्था में नए बदलाव लाने की कोशिश है. लेकिन प्रश्न ये है कि क्या उनका ये उपाय बिहार जैसे राज्य में सार्थक हो पाएगा?

पीके का जीवन सफर अन्य नेताओं से अलग है. विश्व स्वास्थ्य सेवाओं में योगदान देने के बाद उन्होंने भारत के चुनावी क्षेत्र में कदम रखा. पहले गुजरात और फिर 2014 के लोकसभा चुनाव में उनका योगदान स्पष्ट था, लेकिन ये भी सत्य है कि, पर्दे के पीछे से राजनीति करना और खुद मैदान में उतरना, दोनों में जमीन-आसमान का अंतर होता है.
पीके ने कांग्रेस, टीएमसी, आप, वाईएसआरसीपी और डीएमके जैसे विविध दलों के लिए काम किया है. ये दिखाता है कि उनका दृष्टिकोण पक्ष से परे, परिणाम पर केन्द्रित रहा है. आज वो शिक्षा और रोजगार को केंद्र में रख कर, बिहार को नई दिशा में ले जाने की बात करते हैं. उन्होंने स्कूल बैग को चुनाव प्रतीक चुना है, जो उनके दृष्टिकोण को साफ-साफ दिखाता है. लेकिन प्रतीक के आगे समस्याएँ गहरी हैं.
जन सुराज अभियान के माध्यम से पीके ने 5000 से अधिक गांवों में पदयात्रा की, जहां उन्होंने लोगों से मिलकर उनकी समस्याएं समझीं. ये एक प्रशंसनीय प्रयास था, लेकिन बिहार जैसा जातिवाद और सामाजिक गठबंधन से प्रभावित राज्य में ये संवाद वोट बदलेगा, ये अनिश्चित है. पीके स्वयं ब्राह्मण समुदाय से हैं, लेकिन उनका ज़ोर क्षमता पर है, जो प्रेरणादायक है लेकिन यथार्थ से टकराता भी है.
उनका 15 साल का दृष्टिकोण, शिक्षा, स्वास्थ्य, कृषि, उद्योग जैसे क्षेत्रों में सुधार की बात करता है. ये दूरदर्शी सोच है, लेकिन आम मतदाता तुरंत लाभ देखकर वोट डालना पसंद करता है, साथ ही शराब बंदी के विरुद्ध जाकर उससे प्राप्त राजस्व से शिक्षा व्यवस्था सुधारने का सुझाव, ये एक जटिल और बहस योग्य विचार है.
2024 में उपचुनाव में उनकी पार्टी ने कुछ क्षेत्रों में 10–20 प्रतिशत तक मत प्राप्त किया, लेकिन अब भी ये स्पष्ट नहीं है कि ये शहरी केंद्र तक सीमित है या ग्राम्य मतदाता भी इस नई दृष्टिकोण को अपनाएंगे. पीके का दृष्टिकोण विवेकपूर्ण और तथ्य-आधारित है, उनकी पदयात्रा मेहनत और लगन को दिखाती है, लेकिन बिहार में भावनाएँ, जाति और परंपराएँ गहरा प्रभाव रखती हैं. जन सुराज एक नई दिशा का संकेत देता है लेकिन क्या ये विचार ज़मीन पर उतरेगा? या एक “अर्बन बबल” बनकर रह जाएगा, ये तो समय बताएगा.
अंत में, पीके एक गंभीर चुनौती हैं. उनका भविष्य बिहार के माता-पिता के हाथों में है, जो हाँ कहें तो नए विकल्प को एक मौका देंगे या पुनः समीक्षा पर विश्वास जताएँगे.