भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की नेपाल दौरे से कई तरह के कयास लगाए जा रहे हैं। पिछले 17 सालों में ये किसी भारतीय प्रधानमंत्री की पहली नेपाल यात्रा है जिसे बेहद खास माना जा रहा है। ये सभी जानते हैं कि नेपाल और भारत के बीच बेहद करीबी रिश्ते हैं। हालांकि एक सच ये भी है कि पिछले कई वर्षों से नेपाल चीन के ज्यादा करीब रहा है। अब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी एक नई शुरुवात करने जा रहे हैं, लेकिन क्या नरेन्द्र मोदी इसमें सफल होंगे ?
जानकारों की मानें तो दशकों से चीन एक सोची समझी रणनीति के तहत नेपाल, बंग्लादेश, श्रीलंका, म्यांमार और पाकिस्तान में अपनी मौजूदगी को बढ़ा रहा है। चीन भारत की तरह आर्थिक मदद देने में यकीन नहीं रखता है, बल्कि वह बुनियादी सुविधाओं के जरिए पड़ोसी देशों के मन में जगह बनाता गया है। इस मामले मे नेपाल की भूमिका पिछले कुछ वर्षों से ज्यादा खास मानी जा रही है और इसमें कोई शक नहीं है कि नेपाल में भारत का प्रभाव चीन से तुलना में काफी कम है। विभिन्न एजेंसिया और खुफिया सूत्र ये भी बताते हैं कि नेपाल में भारत विरोधी तत्व पिछले कुछ समय में ज्यादा ताकतवर हुए हैं।
नेपाल और चीन के बीच तिब्बत स्वायत्तशासी क्षेत्र के बीच 1400 किलोमीटर की सीमा है। तिब्बत में ग्यिरोंग और नेपाल में स्यापरू बेसी के बीच चीन कच्चे रास्ते को दो करोड़ डालर की लागत से पक्कीकरण कर रहा है। इसके अलावा चाइना की योजना है कि तिब्बत से लेकर नेपाल की राजधानी तक रेट पटरी को भी बिछाया जाए।
यह जाहिर है की नरेन्द्र मोदी की नेपाल यात्रा वहां चीन का दबदबा कम करने की एक रणनीति है, रविवार को नेपाल की संविधान सभा में मोदी ने अपने संबोधन में इसके संकेत भी दिए हैं। मोदी ने नेपाल को 6300 करोड़ रुपए देने की घोषणा कर नेपाल के साथ अपने संबंधों को और मजबूत करने की दिशा में सार्थक कदम बढ़ाया है। मोदी ने ये भी घोषणा की है कि वो नेपाल के साथ HIT (हाइवेज, आईवेज और ट्रांसमिशन) पर काम करने के इच्छुक हैं। मोदी जर्मनी के बाद नेपाल की संविधान सभा को संबोधित करने वाले दूसरे विदेशी शासनाध्यक्ष हैं। बहरहाल इस दौरे से नेपाल में भारत के विरोधी रहे माओवादी दलों की भी तारीफ करके नरेन्द्र मोदी ने समर्थन जुटाने की पहल की है, लेकिन क्या वो इस रणनीति में सफल हाे पाएंगे।