केरल का प्राचीन इतिहास प्राचीन युग से लेकर कुलशेखर साम्राज्य के समाप्तिकाल तक याने 12 वीं शती तक व्याप्त रहता है ।
महाप्रस्तर स्मारक –
केरल के प्राचीन अधिवास के प्रमाण के रुप में विभिन्न स्थानों से खोज निकाले पत्थर के औजारों को ले सकते हैं, विभिन्न स्थानों जैसे वयनाटु के एडाक्कल, तोवरि, इटुक्की के मरायूर के पास के कुटक्काट नामक वनक्षेत्र, कोल्लम जिले के तेन्मला के पास के चन्तरुणि आदि की गुफाएँ केरल के प्राचीन लोक जीवन के प्रमाण हैं। इस प्रकार के प्राचीन खण्डहरों के बाद केरल के लोक जीवन के बारे में जो प्रमाण प्राप्त होते है वे तो महाप्रस्तर स्मारक (megaliths) हैं ।
इन स्मारकों का युग ईसा पूर्व 500 से ईस्वी सन् 300 तक माना जाता है । महाप्रस्तर से तात्पर्य उन कोठरियों या स्तम्भों से है जो बहुत बडे पत्थरों से निर्मित कब्रिस्तान या मृतकों का स्मृतिचिह्न है । दक्षिण भारत में जो महाप्रस्तर अभियान हुआ था वह प्रेत पूजा से सम्बन्धित था । महाप्रस्तर स्मारक भी विभिन्न प्रकार के हैं जैसे भीमकाय पत्थर की कोठरियाँ, पयुतराक्कल्लु (रस्सी नुमा चट्टान) नडुक्कल्लुकल (पत्थर के स्तम्भ), कुटक्कल्लुकल (छतरीनुमा चट्टानें), तोप्पिक्कल्लुकल (टोपी नुमा चट्टानें) पत्थर – गुफाएँ आदि कई प्रकार के महाप्रस्तर स्मारक हैं। वें तो कई नामों से जाने जाते हैं जैसे – नडुक्कल्लु, तोप्पिक्कल्लु, पडाक्कल्लु, पुलच्चिक्कल्लु, पांडिक्कुष़ि (पुरानी कब्र), नन्नन्ङाडि, पतुमक्कत्ताष़ि आदि । शव को मिट्टी से बने बहुत बडे पात्रों में रखकर गाड दिया जाता था । यह ठीक है कि महाप्रस्तर खण्डहरों से प्राचीन जीवन का चित्र मिलता है । परंतु उन्हें स्थायी अधिवास के विकास का सूचक नहीं माना जा सकता ।
विदेशी संबन्ध –
केरल का विदेशों के साथ सम्बन्ध युगों पुराना है । यह सम्बन्ध मुख्यतः व्यापारिक था । किन्तु यह सम्बन्ध केरल की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को रूपायित करनें में सहायक सिद्ध हुआ । विदेशों के साथ जो सम्बन्ध बना था उससे यहाँ यहूदी, ईसाई और इस्लाम धर्म प्रचलित हुए ।
केरल के सुगंधित मसालों ने विदेशियों को इस प्रदेश की ओर आकृष्ट किया । ईसा पूर्व 3000 से ही केरल में विदेशियों का आबागमन होता था । संस्कृति को विकसित किया था । असीरिया और बाबिलोन के निवासी भी केरल पहुँचे थे जिन्होंने प्राचीन सुमेरियन (मेसोपोट्टोमिया दुनिया) संस्कृति को विकसित किया था वे इलायची, लवंग आदि अपने साथ ले गए । केरल के साथ मसालों का सर्वप्रथम व्यापार करने वाले अरब और फिनीश्या के लोग थे । समुद्र से यहाँ प्रथमतः पहुँचने वाले ओमान तथा पेर्श्यन खाडी क्षेत्र के अरब भाषा भाषी होंगे । उत्तर भारत से होकर भी केरल के मसाले मध्य एशिया पहुँच गए । ईसा पूर्व अंतिम सदियों में ग्रीस और रोमा केरल के साथ व्यापार करते थे । दियोस्रोरदीस जो प्राचीन ग्रीक बैद्य थे जिसके ‘मेटीरिया मेडिका’ नामक बैद्यक ग्रंथ में हल्दी, अदरक, लोंग इत्यादि के औषधीय गुणों का वर्णन है ।
ईसा पूर्व पहली सदी में रोमा ने जब मिस्र पर आक्रमण किया तब मसाले व्यापार में केरल के साथ अरबों का एकाधिकार टूट गया । उनकी जगह रोमा आ गया । केरल से प्रभूत मात्रा में रोमा के सिक्के प्राप्त हुए हैं । ईस्वी सन् 45 में जब मिस्री नाविक हिप्पालस ने भारतीय महासमुद्र की हवा की गतिविगतियों को खोज लिया तब केरल की ओर समुद्री यात्रा आसान हो गई । कालीमिर्च ही सबसे बडी कीमती चीज़ थी जो केरल से विदेशों में निर्यात की जाती थीं ।
केरल के साथ व्यापार सम्बन्ध रखने वाले दूसरे देशों में एक था चीन । हो सकता है कि ग्रीक तथा रोमा के पोतों के पहुँचने से पहले ही चीनी पोत केरल के बन्दरगाहों में पहुँचे हों । प्राचीन चीनी सिक्के केरल में प्राप्त हुए हैं । चीनी मिट्टी के बने बर्तनों के खंडहर भी मिले हैं । चीनाच्चट्टि (चीनी फ्राई स्पान) और चीनावला (चीनी जाल जो मछली पकडने के लिए) का प्रचार भी चीन के साथ रहे केरल के व्यापारिक सम्बन्ध का प्रमाण है ।
पुराने बन्दरगाह
पुराने समय में केरल के पास बन्दरगाह थे जो केरल की नाविक परम्परा को भी सूचित करते हैं। उन बन्दरगाहों के कारण विदेशी व्यापार समृद्ध होता गया । मुसरिस (कोडुन्गल्लूर) तिण्डीस, बराक्के, नेलक्किण्डा आदि प्राचीन बन्दरगाहों का वर्णन प्राचीन यायावरों ने किया है । मुसरिस को छोड दूसरे बन्दरगाह कहाँ-कहाँ स्थित थे इसका सही ज्ञान इतिहासविदों को नहीं है । प्राचीन भारत के सर्वप्रमुख बन्दरगाहों में एक था मुसरिस । उपर्युक्त बन्दरगाहों के अतिरिक्त केरल में अनेक छोटे-छोटे बन्दरगाह भी पुराने केरल में बनाए गए होंगे । बाद में कोल्लम, कोष़िक्कोड, कोच्चि इत्यादि प्रमुख बन्दरगाह बने ।
संघमयुग
प्रख्यात इतिहासविद् ए. श्रीधर मेनन का विचार है कि केरल का इतिहास ईसा की प्रारंभिक पाँच सदियों में बन रहा था । यह वह युग है जो तमिल साहित्य में संघमकाल नाम से प्रसिद्ध है । उन दिनों केरल तमिलनाडु के अन्तर्गत था ।
‘पष़न्तमिष़ पाट्टुकळ’ (पुराने तमिलगीत) नाम से अभिहित संघ साहित्य से इस युग के बारे में जानकारी मिलती है । प्रायः सभी इतिहासकार यह मानते हैं कि ईसा पूर्व पहली शताब्दी तथा ईस्वी सन् छठी शताब्दी के बीच का काल संघमकाल है । डा. एस. कृष्ण स्वामी अय्यंकार, नीलकण्ठ शास्त्री, कनकसभा शेषय्यर, पी. के. गोपाल कृष्णन जैसे इतिहासकार एवं ‘कैमब्रिड्ज हिस्ट्री ऑफ इन्डिया’ का अभिमत है कि ईस्वी सन् की प्रारंभिक तीन सदियाँ ही संघमकाल है । किन्तु ए. श्रीधरमेनन ने प्रमाण देकर लिखा है कि ईस्वी सन् एक से पाँच तक की सदियाँ ही संघमकाल है और इलंकुलं कुञ्ञन पिल्लाई के मत में ईस्वी सन् 5 और 6 शताब्दियाँ ही यह युग है । आधुनिक कालीन इतिहास अनुसन्धाताओं का मत है कि संघम साहित्य एवं महाप्रस्तर स्मारक एक ही युग का प्रतिनिधित्व करते हैं।
संघमकालीन तमिलक्षेत्र के शक्तिशाली राज्य थे तोण्डैमण्डलम्, चोलम्, पांड्यम, चेरम्, कोंगुनाटु जिनमें से चेरनाटु बाद में केरलम कहलाने लगा । राजधानी का नाम वंचि था । संघमकालीन केरल के प्रमुख राजा थे दक्षिण क्षेत्र के आयवंश के राजा एष़िमला (पूष़िनाटु) को राजधानी बनाये नन्नवंश के शासक और दोनों के बीच के क्षेत्र के शासक और चेरवंश के शासक ।
संघमकालीन रचनाओं से तद्युगीन केरल की सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिर्क दशाओं का विस्तृत विवरण मिलता है । समाज विभिन्न कबीलों से बने विभिन्न वर्गों में बँटा हुआ था । परिवार ही सामाजिक जीवन का मूल था । सामाजिक समस्याओं का समाधान मन्रम द्वारा होता था जो ग्राम मुखियों से गठित था । कई इतिहासकारों के अनुसार यह ऐसा संक्रान्ति काल था जिसमें शासन व्यवस्था कबीलों से चलकर राजाओं के हाथ में आ गई ।
केरल में संघमकाल में ही कृषि प्रधान आथिर्क व्यवस्था का उदय होना शुरू हुआ था । ज़मीन को पाँच तिणा (भूभाग) में बाँटा गया था । पहला पहाडी क्षेत्र था जिसका नाम कुरि़ञ्ञि तिणा क्षेत्र था जहाँ कुरवर, कनवर आदि गोत्र वर्ग के लोग रहते थे । दूसरा पाल तिणा नाम से जाना जाता था जो मरुस्थल जैसा मिट्टी का जंगल था जहाँ मरवर, वेटर आदि रहते थे । तीसरा मुल्लतिणा कहलाता था जो वनस्थल था जहाँ चरवाहे और आयर रहते थे । मरुता क्षेत्र नामक ग्रामांचल में उषवर (खेतीहर किसान) रहते थे । समुद्रतटीय क्षेत्र को नेयतल कहा जाता था जहाँ रहने वाले थे परतवर, नुलैयर और अलवर । कृषि के साथ – साथ व्यापार भी लहलहा उठा । मुसिरिस (मुयिरि), नौरा, तिण्डिस, नेल्किन्दा, बकरे, कोट्टनारा आदि संघमकालीन केरल के प्रमुख बन्दरगाह थे । अकनान्नूर नामक संघमकालीन गीतों में बताया गया है कि यवनों के बडे-बडे जहाज़ चुल्लि (पेरियार) की लहरों को चीरते हुए मुयिरि नामक शहरों में पहुँचते थे और स्वर्ण देकर कालीमिर्च खरीदते थे । मुयिरि नामक मुसिरिस कोडुन्ङल्लूर का ही दूसरा नाम है ।
कृषि और व्यापार में उन्नति हुई । फलतः केरलवासी हर्ष़ोल्लास तथा समृद्धि का अनुभव करते थे । (पतिट्टिप्पत्तु 6) समाज में एक उच्च वर्ग का उदय हुआ जो मेलोर कहलाता था । इस वर्ग में उषवर (खेतीहर किसान), चान्टोर (मद्योत्पादक) और वणिक् (व्यापारी) तीनों विभाग सम्मिलित थे । उषवर के पास अधिकांश सम्पत्ति थी ।
चूँकि नर-नारी दोनों शराब पीते थे इसलिए चान्टोर की ज़िम्मेदारी होती थी उनकी सुरक्षा की व्यवस्था करना (चान्टोर मेरम्मैर पतिट्टु VI, 8 राजा) । पुलवर, परवर, पाणर, पोरुनर आदि का समाज में सम्मानित पद था । विनैझर (श्रमिक) और अटियोर (दास) विभागों को निम्न वर्ग माना जाता था जो कीष़ोर नाम से जाना जाता था । किन्तु विभिन्न वर्गों के बीच बिना भेदभाव के विवाह सम्बन्ध होता था । संघमकाल में जाति प्रथा नहीं थी जो ब्राह्मणों के आगमन के बाद उनके प्रभाव से उत्पन्न हुई ।
कलव और कर्प नाम से विवाह की दो रीतियाँ प्रचलित हुई थीं । प्रेम विवाह को ही कलव कहलाता था । कर्प ऐसा विवाह था जिसमें रस्म-रिवाज़ें होती थीं । कहा जाता है कि कलव से कर्प की ओर जो परिवर्तन हुआ वह मातृसत्तात्मक क्रम से पितृसत्तात्मक क्रम की ओर हुए सामाजिक परिवर्तन की परिणति है । साधारणतः लडकियाँ तष़युटा (केतकी की पत्तियों से बना कपडा) पहनती है । यह नोच्चि फूलों (एक तरह का फूल) और आम्बल (कुमुदिनी) के फूलों से बना कपडा है जिसे लडकियाँ कमर में पहनती हैं।
विवाहित नारियाँ रूई या रेशम से बने कपडे पहनती हैं । वे कमर के ऊपर का भाग खुला छोडती थीं । चिलम्ब (नूपुर), फूलमाला, मोती माला, पुलिप्पल तालि (बधंदतों से बनी माला), कंगन, तोटा (एक तरह का कर्णफूल) इत्यादि आभूषण पहनती थीं । पुरुष छाती में चन्दन लगाकर रूई या रेशम के वस्त्र पहनते थे । युद्ध के लिए जाने वाले पुरुष कास के फूल पहनते थे । पूर्वजों को (नडुकल्लु) ईश्वर थे । इसके अतिरिक्त उषवर वेन्दन (इन्द्र) की, मायोन विष्णु की, परतवर वरुण की, कुरवर चेयोन (मुरुगन) की, मरवर कोट्टवै देवी की पूजा अर्चना करते थे । संघमकालीन रचनाओं में शिव, यम, बलराम आदि का भी वर्णन मिलता है । संघमकाल में धर्म विश्वास में कोई क्रम नहीं था ।
आदिचेर
आदिचेर नाम से प्रख्यात चेरनाट के प्रमुख चेर राजा थे – उतियन चेरल आतन, नेटुम चेरल आतन, पलयनै चेल केष़ुकुट्टुवन, नरमुटि चेरल, वेलकेष़ुकुट्टुवन, आडुकोट् पाट्ट चेरल आतन, चेलवकुटुम् कोवाषि आतन, पेरुम चेरल इरुम्पोरै, इलम चेरल इरुम्पोरै इत्यादि ।
आय राजा
दक्षिण केरल के आय शासकों के आविर्भाव के बारे में कोई संतो़षजनक प्रमाण नहीं है । संघमकालीन प्रमुख आय राजा थे अण्टिरान, तितियन, अतियन । इनके बारे में संघमकालीन साहित्य में जिक्र है । ईसा की 8 वीं शती के बाद करुनन्तन, करुनन्तनटक्कन, विक्रमादित्य वरगुणन आदि शासक आय राजवंश में पैदा हुए । विक्रमादित्य वरगुणन के पश्चात् आय राजवंश की पृथक पहचान खो गई । बाद में आय राजवंश मिट गया ।
कुलशेखर साम्राज्य
संघमकाल के पश्चात ईस्वी सन् नौवीं शती तक के केरल का प्रामाणिक इतिहास लिखने में इतिहासकार असफल हुए । यह जो तीन सौ वर्षों का कालखण्ड है उसे लम्बी रात नाम से अभिहित किया जाता है क्योंकि इस काल के सामाजिक जीवन और राजनैतिक गतिविधियों या सांस्कृतिक विकास का कोई स्पष्ट चित्र उपलब्ध नहीं है । लगभग सन् आठवीं शती में उस लम्बी रात को समाप्त करते हुए कुलशेखर नामक राजओं के अधीशत्व में एक चेर साम्राज्य का उदय हो गया । यह साम्राज्य, जिसे इतिहासकार दूसरा चेरसाम्राज्य, कुलशेखर साम्राज्य आदि नामों से अभिहित करते थे, 12 वीं सदी तक कायम रहा । सन् 800 – 1102 तक का कालखण्ड कुलशेखरकाल माना जाता है ।
कुलशेखर साम्राज्य ने आधुनिक केरल की नींव डाली । कुलशेखर राजाओं की राजधानी महोदयपुरम थी जिसके सम्बन्ध में आम धारणा है कि वह वर्तमान कालीन कोटुंगल्लूर और तिरुवंचिक्कुलम क्षेत्रों के अन्तर्गत था । इस प्राचीन साम्राज्य का तेरह सम्राटों ने शासन चक्र चलाया – कुलशेखर आलवार (800 – 820), राजशेखर वर्मा (820 – 844), स्थाणु रविवर्मा (844 – 885), रामवर्मा कुलशेखरन (885 – 917), गोदारविवर्मा (917 – 944), इन्दुक्कोता वर्मा (944 – 962), भास्करा रविवर्मा प्रथम (962 – 1019), भास्करा रविवर्मा (1019 – 1021), वीरकेरळन (1022 – 1028), राजसिंहन (1028 – 1043), भास्करा रविवर्मा तृतीय (1043 – 1082), रवि रामवर्मा (1082 – 1090) और रामवर्मा कुलशेखरन (1090 – 1102) ।
चोल राजाओं के अभियान ने द्वितीय चेरसाम्राज्य को ध्वस्त कर दिया । कहा जाता है कि कुलोत्तु नामक चोल सम्राट के सैनिकों ने राजधानी महोदयपुरम को जला डाला। जनश्रुति है कि अंतिम चेर सम्राट (चेरमान पेरुमाल) ने राज्य को बाँटकर बहुतों को दिया और इस्लाम धर्म मे दीक्षा लेकर अरब देश गए । प्रस्तुत घटना को प्रमाणित करने वाला समकालीन कोई प्रमाण या लिखित सामग्री नहीं मिलती । वैसे ही प्राचीन अथवा मध्ययुग के किसी यायावर ने अपने यात्रावृत्त में उपर्युक्त घटना का उल्लेख नहीं किया है ।
कुलशेखर कालीन केरल
कुलशेखर शासन काल की नौवीं और दसवीं शतियाँ केरलीय इतिहास का सुवर्ण काल माना जाता है । कुलशेखर शासकों ने शासन को सुचारु रूप से चलाने के लिए अपने साम्राज्य को कई छोटे – छोटे क्षेत्रों में विभाजित कर दिया । क्षेत्रों को प्रदेशों में बाँटा । प्रदेश की सबसे छोटी इकाई को ‘करा’ कहलाता था । कई प्रकार के कर वसूल किए जाते थे जो ‘पतवरम’ नाम से जाना जाता था । वाणिज्य, विज्ञान, कला, साहित्य आदि विभिन्न क्षेत्रों में केरल ने प्रगति की । महोदयपुरम में ज्योतिषविद शंकर नारायणन के नेतृत्व में एक प्लानेटोरियम स्थापित हो गया था ।
कान्तल्लूर, कोल्लम, विषिञ्ञम, कोटुंगल्लूर इत्यादि बन्दरगाह कुलशेखर कालीन विदेश व्यापार केन्द्र थे । सर्वाधिक व्यापार चीन के साथ ही होता था । सुलेमान, मसूद आदि अरब यात्रियों ने उपर्युक्त बातों का उल्लेख किया है । व्यापारियों के संगठन होते थे । सर्व- प्रमुख वाणिज्य संगठन थे – अ़ञ्चुवण्णम्, मणिग्रामम्, वलञ्चियर, नानादेशिकल।
भाषा और साहित्य
पृथक् भाषा के रूप में मलयालम का उदय और विकास कुलशेखर काल में हुआ । मलयालम भाषा के उद्गम के सम्बन्ध में आम विश्वास यह है कि उस युग में केरल में प्रचलित कोटुम तमिल (शुद्ध तमिल) नामक भाषा भेद से मलयालम उत्पन्न हुई । चूँकि कुलशेखर काल में ही मलयालम भाषा की उत्पत्ति हुई थी इसलिए उस काल में कोई साहित्य निर्माण नहीं हुआ । केरल के लेखक तमिल और संस्कृत में लिखते थे । बताया जाता है कि कुलशेखर आलवार नामक प्रथम कुलशेखर राजा ने ‘पेरुमाल तिरुमोषि’ नामक तमिल ग्रन्थ तथा ‘मुकुन्दमाला’ नामक संस्कृत काव्य की रचना की । कतिपय इतिहासकारों का कहना है कि ‘तपतीसम्वरणम्’, ‘सुभद्राधनञ्जयम्’, ‘विच्छिन्नाभिषेकम’ आदि संस्कृत नाटक तथा आश्चर्यमञ्जरि नाम के गद्य ग्रन्थ का रचयिता कोई कुलशेखर राजा था । ‘युधिष्ठिर विजय’ नामक संस्कृत महाकाव्य का रचयिता वासुदेवन कुलशेखर-काल का कवि था ।
अनेक दार्शनिक एवं वैज्ञानिक ग्रन्थ भी लिखे गए । कुलशेखर काल में सृजक साहित्यकारों की लम्बी कडी मिलती है – अद्वैतवादी शंकराचार्य, कवि तोलन, ‘आश्चर्यचूडामणि’ नामक नाटक के रचयिता शक्ति भद्रन, ‘शंकर नारायणीयम’ नामक ज्योतिष ग्रन्थ के लेखक शंकरनारायणन, ‘चिलप्पतिकारम्’ के लेखक इलम्को अटिकल आदि अनेक प्रतिभाशाली सृजक कलाकार कुलशेखर कालीन केरल के प्रकाश स्तम्भ थे ।
धर्म
प्राचीन केरल में जो धर्म प्रचलित था वह द्रविड आचार अनुष्ठान था और उसमें संगठित धर्म की कोई विशेषता नहीं थी । वे कुलदैवों, प्राकृतिक शक्तियों और कोट्टवै नामक युद्ध देवता की उपासना करते थे । मरे हुए लोगों की पूजा करने की रीति भी चल पडी थी । ईस्वी सन् पहली शताब्दी से पूर्व बाहर से आए जैन, बौद्ध एवं ब्राह्मण धर्म यहाँ पहुँच गए । शताब्दियाँ बीतने पर उन धर्मों ने द्रविड आचारों को समाप्त कर केरल में अपनी सिक्का जमा दी । ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में केरल में पहुँचे जैन, बौद्ध धर्मों ने केरल पर अपना आधिपत्य जमाया । तदनन्तर केरल में ब्राह्मण लोग पहुँचे जो आर्यवंशज थे । किन्तु ब्राह्मणों का पूर्वाधिक शक्तिशाली आगमन ई. सन् 8 वीं शती में हुआ । परिणामत हिन्दू धर्म जम गया । जिस ब्राह्मण हिन्दू धर्म ने जैन – बौद्ध धर्मों के प्रभाव को विनष्ट किया था वह द्रविड विचारों एवं देवताओं को आत्मसात कर पला – बढा ।
सम्राट कुलशेखर के राज्य काल में हिन्दू धर्म का अभूतपूर्व विकास हुआ । शंकराचार्य (788 – 820) के प्रयास ने हिन्दू धर्म को केरल में ही नहीं भारत भर में नवोन्मेष तथा संगठित स्वरूप प्रदान किया । शंकराचार्य ने अपनी कृतियों के द्वारा भारतीय दर्शत को महान योग दिया । हिन्दू धर्म के विकास का स्वाभाविक परिणाम था मन्दिरों का निर्माण । ई. सन् नौवीं शती से असंख्य मंदिर निर्मित हुए । द्रविड ईश्वरों में अनेक हिन्दू ईश्वर बनाये गए । तत्पश्चात् मंदिर के शासन के लिए समितियाँ बनीं । मूष़िक्कुलम कच्चम जिसमें मंदिर के शासन के लिए आवश्यक नियम बनाये गए हैं । मूष़िक्कुलम कच्चम से तात्पर्य वह स्थान है जहाँ सार्वजनिक बैठक हुई और जो एरणाकुलम के परावूर के पास स्थित मूष़िक्कुलम में था जहाँ क्षेत्रीय प्रशासक और मंदिर के प्रशासक एक साथ भाग लेते थे । असंख्य दूसरे कच्चम भी हैं । उन दिनों जो राजादेश निकले उनमें कच्चमों और मंदिरों के बारे में अनमोल सूचनाएँ प्रदान की गई हैं ।
धर्म और मंदिर ने कला तथा ज्ञान प्रसारण को बढाव दिया । कूत्तु, कूटियाट्टम आदि कलारूपों का आविर्भाव 9 वीं सदी में हुआ । शिल्प कला एवं वास्तुकला का भी विकास हुआ । कुलशेखर कालीन केरल में अनेक विद्या केन्द्र खुले जिनमें मूष़िक्कुलम शाला, तिरुवल्ला शाला प्रसिद्ध हैं । मंदिर में वेदपाठ हुआ करता था और धार्मिक संहिताओं पर परीक्षाएँ भी होती थीं । ‘कटवल्लूर अन्योन्यम्’ एक आदर्श संस्था थी जहाँ ऋग्वेद वैदग्ध्य की परीक्षा ली जाती थी । यद्यपि बौद्ध एवं जैन धर्म पिछड गए थे यथापि यहूदी तथा ईसाई धर्मों को कुलशेखर काल में अनेक अधिकार प्राप्त हुए थे ।
युगान्त
चोल राजाओं एवं कुलशेखर राजाओं के बीच जो युद्ध हुआ था उससे अन्ततः कुलशेखर साम्राज्य का ही पतन हुआ था । प्रस्तुत युद्धों से केरल के नम्पूतिरि ब्राह्मणों की शक्ति बढी । मंदिरों को मिली विपुल सम्पत्ति के अधीशाधिकार प्राप्त ब्राह्मणों की आर्थिक स्थिति बहुत ही उन्नत हो गई । ब्राह्मण वर्ग आर्थिक शक्ति का केन्द्र हो गया । इसी काल में सांमती व्यवस्था का उदय हुआ तथा ‘मक्कत्तायम’ (संपत्ति पर संतानों का अधिकार – पितृसत्तात्मक उत्तराधिकार) का अस्त एवं ‘मरुमक्कत्तायम’ (मामा को सम्पत्ति पर अधिकार) प्राप्त हो गया । दूसरे शब्दों में पितृसत्तात्मक अर्थ-व्यवस्था के स्थान पर मातृ सत्तात्मक अर्थ-व्यवस्था का उद्गम भी इस काल में हुआ । ब्राह्मणों का अधीशत्व जब बढ गया तब वे सामाजिक सम्बन्ध एवं राजनैतिक दृढता टूट गई जो कुलशेखर साम्राज्य को कायम रखे हुए थी ।