
अम्बिकापुर/पारसनाथ सिंह। छत्तीसगढ़ सरकार शिक्षा को लेकर चाहे जितने भी बड़े दावे कर ले, लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और ही बयां करती है। सरगुजा जिले के मैनपाट विकासखंड अंतर्गत कुदारीडीह (जंगलपारा) की तस्वीर न केवल शिक्षा विभाग बल्कि पूरे सिस्टम को आईना दिखाने के लिए काफी है। यहां एक ऐसा सरकारी स्कूल है, जिसे 18 साल पहले यानी 2006 में खोला तो गया, लेकिन आज तक इसके लिए एक अदद भवन तक नहीं बन सका।
कभी किचन शेड, तो कभी आंगनबाड़ी में चलती है कक्षा
प्राथमिक शाला जंगलपारा के बच्चों की पढ़ाई ‘जुगाड़’ के भरोसे चल रही है। गर्मी और ठंड में जर्जर आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों को पढ़ाया जाता है, लेकिन जैसे ही बारिश का मौसम आता है, हालात और भी बदतर हो जाते हैं। छत से पानी टपकने लगता है तो प्लास्टिक तानकर शिक्षक और छात्र पढ़ाई जारी रखने की कोशिश करते हैं। जब आंगनबाड़ी पूरी तरह अनुपयोगी हो जाती है, तब किचन शेड में ही बच्चों को बैठाकर पढ़ाई कराई जाती है। यही नहीं, जहां खाना बनता है, उसी के बगल में बच्चे बैठते हैं। सुरक्षा और स्वच्छता की कोई गारंटी नहीं है।
18 साल में भी नहीं बना स्कूल भवन
शिक्षकों की मानें तो भवन के अभाव की जानकारी कई बार विभाग को दी गई है, लेकिन नतीजा आज भी ‘शून्य’ है। स्कूल के प्रधानपाठक घनश्याम बताते हैं, “हमने उच्च अधिकारियों को लिखित में स्कूल भवन नहीं होने की जानकारी दी है, लेकिन अब तक कोई समाधान नहीं हुआ है। अब आंगनबाड़ी की स्थिति भी जर्जर हो चुकी है, प्लास्टर गिर रहा है। ऐसे में परेशानी तो होती है।”
बच्चे और शिक्षक, दोनों परेशान
छात्रों के बैठने की जगह सीमित है। कभी आंगनबाड़ी के एक कोने में बच्चों को बिठाया जाता है, तो कभी किचन शेड के पास। यह सब तब हो रहा है जब देशभर में शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने और बच्चों को बेहतर माहौल देने की बातें जोरशोर से की जा रही हैं। लेकिन जंगलपारा के हालात सरकार की कथनी और करनी में फर्क साफ उजागर कर रहे हैं।
सरकार को नींद से जगाने वाली तस्वीर
यह मामला सिर्फ एक गांव या एक स्कूल का नहीं है। यह उस सोच का नतीजा है जिसमें शिक्षा को प्राथमिकता देने की बजाय ‘कागजों में खानापूर्ति’ तक सीमित रखा गया है। क्या यह वही ‘नया छत्तीसगढ़’ है जिसकी बात सरकार करती है? सवाल उठता है कि क्या जंगलपारा के मासूम बच्चों को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का अधिकार नहीं है? क्यों एक पूरी पीढ़ी को शिक्षा के नाम पर समझौता करने को मजबूर किया जा रहा है?
अब नहीं जागे तो कब?
सरकार और शिक्षा विभाग को जवाब देना होगा कि आखिर 18 वर्षों में एक प्राथमिक स्कूल को भवन क्यों नहीं मिला? सिस्टम की यह सुस्त कार्यप्रणाली आखिर कब बदलेगी? क्या सिर्फ योजनाएं और घोषणाएं ही विकास की पहचान बनेंगी, या फिर कभी इन बच्चों की तकलीफ भी सुनाई देगी?