गरियाबंद. क्या कभी आपने देखा व सुना होगा होली में हुड़दंग नही होता, गुलाल के रंग की बजाए राख की तिलक से होली खेली जाती होगी, होली के मंच में अतिथि गाय, वृक्ष, चींटी व गौरेया चिड़िया आए हो, नगाड़े की थाप नही ढपली से भजन कीर्तन होता हो। जी हां आज हम आपको गरियाबंद (Gariyaband) के कांडसर गौ शाला में ले चलते है जँहा प्रकृति के प्रति प्रेम झलकने होली खेली जाती है।
कांडसर गौ शाला में जुटी यह भीड़ प्रकृति के प्रति आस्था रखने वालों की है। यहां होली के 4 दिन पहले से प्रकृति के साथ खेले जाने वाली होली की रस्म की शुरूवात हो जाती है। खास बात यह है कि आयोजन के मूख्य अतिथि गौ माता होती हैं, पर हर बार विशिष्ट अतिथि बदले जाते हैं, यह अतिथि भी प्रकृति के रखवालो में से होते हैं, इस बार आम वृक्ष, गौरैया चिड़िया व बड़ी चींटी विशिष्ट अतिथि बने हैं, आयोजन स्थल पर अतिथियों को लाने महिलाएं कलश यात्रा लेकर निकलती है। लगभग डेढ़ किमी पैदल ग्राम के मुहाने पर अतिथि मौजूद रहते हैं। भजन कीर्तन व जयकारे के साथ अतिथि स्थल पर लाये जाते हैं, फिर अगले ही दिन तीन दिवसीय लगातार चलने वाले यज्ञ की शुरूवात हो जाती है।
स्थानीय निवासी तुलाराम धीवर बताते हैं कि गोबर कंडा व औषधिय गुण वाले लकड़ियों को घी के साथ आहुति दी जाती है। होलिका दहन के मुहूर्त पर पूर्णाहुति होती है और फिर अगली सुबह तिलक लगाकर होली खेली जाती है।
स्थानीय निवासी गौरी शंकर कश्यप बताते हैं कि बाबा उदयनाथ ने अपने 150 गौ सेवको के साथ इसकी शुरुवात 2005 से किया था। तब आयोजन का स्वरूप सीमित था। बीते 18 वर्ष में आयोजन की ख्याति दूर दूर तक फैली, प्रदेश के कोने कोने से भारी सँख्या में यंहा लोग जुटते है। धर्म व प्रकृति प्रेम रखने वाले कई संगठन इस आयोजन को सफल बनाने पहुचंते है। इस आयोजन में अतिथि बन कर आ रहे गौ माता के राह में जमीन पर लेट कर पग बाधा बनने का भी रिवाज है।मान्यता है कि ऐसा करने से शारिरिक कष्ट दूर होते हैं।