अम्बिकापुर
दीपों का त्योहार दीपावली ज्यों – ज्यों करीब आ रहा है लोगो का उत्साह दुुगुना होता जा रहा है। पांच दिनो तक मनाये जा वाले इस पर्व की शुरूआत धनतेरस से लेकर भाई दूज को समाप्त होती है। इस दीपोत्सव में दीयों का खास महत्व होता है। पांच दिनों के इस अवसर में घर – आंगन को मिट्टी के दीयों से रोशन करने की परम्परा प्राचीन काल से चली आ रही है और वह आज भी कायम है। मिट्टी से तैयार किए गए इन दियों को बेचने के लिए विक्रेता बजारोें में पहुंचने लगे है । बाजरों के अलावा गांव की गलियों में भी इसके बेचने वाले पहुंचने लगे है । लोग अपने समथ्र्य के अनुसार साधारण से लेकर आकर्षक दीयों की खरीददारी कर रहे है।
हालाकि बाजारों में कृत्रिम इलेक्ट्रानिक दीयों भी चलन में है लेकिन मिट्टी के दीयों ने अपनी पहचान आज भी नहीं खोई है क्योकि इसकी कीमत उन दीयों की तुलना में काफी कम है। इलेक्ट्रानिक दीयोें की दायरा सिमित है तो मिट्टी के दीयों की असिमित जिसे घर या आंगन के किसी भी कोने मेें रखकर उस स्थान को रोशन किया जा सकता है। मिट्टी के दीयों का महत्व गांवो में इसलिए भी और अधिक है क्योकि गांवो में भाई – चारा का संदेश देती एक दूसरे के घरो में दीए पहुंचाने का पुराना परम्परा आज भी जीवित है। ऐसा ही नहीं है कि शहरों में रहने वाले मिट्टी के दीया नहीं जलाते परन्तु आधुनिकता के परिवेश में ढ़ल चुकी शहरों की इमारतें दीयों से कम रंग – बिरंगी झिलमिलाती रोशनियों से अधिक रौशन होेती है लेकिन इस सच्चाई को झुठलाया नहंी जा सकता कि भले ही घर विद्युतीय रोशनी से रोशन हो रहा हो परन्तु घर के पूजा स्थल में आज भी दीया ही जलाया जाता है।