हम सजा के बारे में बहस करते हैं, सुधार पर कोई चर्चा नहीं होती…

 में यह भी देखना होगा कि इस समय नाबालिगों से और नाबालिगों द्वारा रेप के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है, यकीनन इस उम्र में रेप का शिकार होना जीवन भर के लिए एक गहरा जख्म दे जाता है. उन्नाव और उसके बाद कठुआ के मामलों ने लोगों के भीतर रेप के लिए दबे गुस्से को चरम पर पहुंचा दिया इस मामले के बाद नाबालिग से रेप के दोषी को फांसी की सजा की मांग ने जोर पकड़ लिया इससे जुड़ी कई बहसें शुरू हो गईं मैंने खबरें पढ़ींए कई विश्लेषण भी देखे. कई बहसों का भी दर्शक के तौर पर हिस्सा रही सबका विषय एक ही था. सभी सजा होने पर और उसके प्रकार पर चर्चा कर रहे थे. मैं यहां यह नहीं कहना चाहती कि दोषी को फांसी की सजा हो या न हो, मुझे जो अटपटा लगा वह यह कि कहीं भी अपराधी प्रवृति में बदलाव लाने के लिए या सुधार के प्रयासों या प्रावधानों का जिक्र तक नहीं, इसका मतलब तो यह हुआ न कि हम अपराध न होने के लिए नहीं, उसके होने के बाद के प्रावधानों पर चर्चा और काम कर रहे हैं. ये तो वही बात हुई कि हम जहर का तोड़ तलाश रहे हैं, जबकि उसे जड़ से खत्म करने के बारे में कहीं कोई चर्चा नहीं.

हमें यह भी देखना होगा कि इस समय नाबालिगों से और नाबालिगों द्वारा रेप के मामलों में लगातार इजाफा हो रहा है. यकीनन इस उम्र में रेप का शिकार होना जीवन भर के लिए एक गहरा जख्म दे जाता हैण् और इस अपराध को अंजाम देने वाले की जिंदगी भी सही दिशा तो बिलकुल नहीं पकड़ पाती. दोनों ही के जीवन में यह नासूर सा रह जाता है. इसलिए इस अपराध के लिए सजा तय करने और अपराधी को कड़ी सजा सुनिश्चित करने से कहीं ज्यादा जरूरी है कि युवाओं और बच्चों को सेल्फ डिफेंस की शिक्षा के साथ.साथ सेक्स एजुकेशन भी दी जाए, जो उन्हें किसी गलत राह पर जाने से रोके और सही दिशा का चुनाव करने की क्षमता उनमें पैदा हो, यहां छोटा सा उदाहरण देती हूं, मेरी पांच साल की बेटी है. इस उम्र में बच्चों को सही गलत की समझ देना जरूरी है, इसलिए ही मैं उसे सही गलत बात कर उसके मन में इसकी तस्वीर नहीं छापती, न ही चेतावनी देती हूं कि अगर उसने ऐसा कुछ किया तो उसे यह सजा दी जाएगी. मैं बस सुनिश्चित करती हूं कि उसे यह पता हो कि ऐसा करने से उसका क्या नुकसान होगा और अगर वह ऐसा नहीं करेगी, तो उसे इसका क्या लाभ मिलेगा. धीरे.धीरे वह अपना हित और अहित समझने लगी है. कोई गलत काम हो या फिर अपने गुस्से पर नियंत्रण ही क्यों न करना हो. उसने खुद ही अपनी छोटी.छोटी बातों में सही गलत को परखना सीख लिया है.

जब हम बच्चों में यह आदत नादान उम्र में ही डालेंगे, तो यकीनन वह बड़े होने तक सही.गलत, हित,अहित को समझ पाएंगे और विवेकशील युवा बनेंगे, बनिस्पत इसके कि हम उन्हें सही या गलत खुद बताएं और हमारी कही बातें न मानने पर सजा दें, तो यकीनन वे एक ढर्रे पर बिन सोचे चलना ही सीखेंगे, यह वजह काफी है मन और शरीर की जरूरतों से अंतस में कहीं उठ रही अवांछित और ओछी बातों के अधीन हो जाने के ऐसे में वे कभी विवेकी बन ही नहीं पाएंगे. बच्चों में मजबूत सोच और इच्छाशक्ति पैदा करने की जरूरत है. यही सोच उन्हें एक समझदार और जिम्मेदार युवा बनाएगी..

इधर, हमारे देश में एक नया चलन आया है. सही और गलत का फैसला कोर्ट नहीं एक भीड़ लेती है. जिसके हाथ में बैनर, झंडे और मुंह पर नारे होते हैं. पक्ष और प्रतिपक्ष दोनों में से जिसकी भीड़ बड़ी हैए जिनकी आवाज ज्यादा बुलंद है और जिनके हाथ और दिल गुनहगार को बचाने के लिए गुनाह करने से भी नहीं चूकते, वही जीतता है. माना कि इस देश के कानून के हाथ लंबे हैं. लेकिन ये लोग कानून के ठीक बगल में उससे खिलवाड़ कर लेते हैं. रेप के आरोपियों के पक्ष में एक बड़ी भीड़ खड़ी होती है. तो हमें यह समझने में दिक्कत नहीं होनी चाहिए कि इस भीड़ ने जिस युवा जेनरेशन को परवरिश दी है वह सोच से कितना जिम्मेदार नागरिक बनेगा..

भारत इस समय एक ऐसा देश है जहां सबसे ज्यादा आबादी में युवा हैं. ऐसी घटनाओं का बार.बार और बड़ी संख्या में सामने आना कहीं न कहीं उनकी परवरिश और बड़े होने के दौरान उनके आसपास के माहौल पर निर्भर करता है. इस सोच के साथ युवा हुआ यह तबका आने वाली पीढ़ी को विरासत में क्या देगा… सोचिएगा जरूर.उधर, इसी युवा को ऐसा परिवेश देने वाले बड़ों की जमात रेप जैसे अपराधों के लिए मौत की सजा की बात करती है. सुधार की नहीं. रेप या किसी अन्य अपराध के दोषी को क्या सजा दी जाए यह एक लंबी बहस और शोध का विषय हो सकता है.

आनन.फानन में या एक घटना के बाद कुछ समय के लिए भड़की भीड़ के दबाव में बने कानून या सजा के प्रावधान यकीनन प्रभावहीन होंगे, सुधार की बात उस समय भी करनी जरूरी थी. जिस उम्र में उनकी ऐसी मानसिकता का विकास हो रहा था और आज भी करनी जरूरी है. जब एक वर्ग युवा होने की कगार पर है…

  अनिता शर्मा एनडीटीवी खबर में डेप्‍यूटी न्‍यूज एडिटर हैं..