अभाव में मां के संघर्ष ने दिखाई बच्चों को राह

मातृदिवस पर फटाफटन्यूज  विशेष

  • जब शब्दावतार लिया मां ने, हर तरफ बिखर गई ममता
  • झुग्गीनुमा किराने की दुकान से शुरू हुआ सफर 
  • फटे-पुराने पुस्तकों को पढ़ बिटिया ने 10 वीं में अर्जित किये 90 प्रतिशत अंक

 

ऐ अंधेरे देख ले, मुंह तेरा काला हो गया ।
मां ने आंखें खोल दी, घर में उजाला हो गया।।

अम्बिकापुर से दीपक सराठे

कलम और शब्द जब भी कागज पर उतरते हैं तो कई एहसास जीवंत होते हैं, लेकिन जब साक्षात ईश्वर के दूत पर कुछ लिखना हो, तब अहसासों की भाषा सुनहरी हो जाती है। ये ईशदूत कोई और नहीं मां ही है। साहित्य जगत में भी अपने अंदाज में मां के संघर्ष की जय-जयकार की है। ऐसे कई रचनाकार हैं जिनका शब्द मां से शुरू होकर मां पर ही समाप्त होता है।

मां, मां होती है, वह कभी भी अपने बाल और बच्चों की ख्याहिशों को अधूरा नहीं रहने देना चाहती, चाहे उसके लिये कितना भी संघर्ष उसे करना पड़े। ऐसा अकसर देखा, कहा और सुना जाता है कि बच्चों की खातिर मां ने अपने आप को कुर्बान कर दिया। बच्चों के लिये मां की शहादत के किस्से आये दिनों अखबार की सुर्खियां बनते हैं। ठीक यही उदाहरण सटीक बैठता है, अम्बिकापुर शहर के रामानुज वार्ड क्रमांक 33 जोड़ातालाब के समीप रहने वाली महिला रेखा विश्वकर्मा पर। जिसने ढेर सारे संघर्षों और आभावों के बीच भी हार मानने से इंकार कर दिया। पति की मौत के बाद उसके सामने पूरी दुनिया अंधेरी हो गई। सन्नाटों के बीच बहते आंसूओं की अविरल धाराओं ने उसके अकेलेपन में उसका हौसला बढ़ाया और उसने कमर कस के यह ठान ली कि वह अपने स्व. पति के सपनों को कभी भी अधूरा नहीं रहने देंगी। इन सूनी आंखों में उसके अपने भी सपने थे और पुतलियों में बंद दो चमकते सितारे बिटिया महिमा विश्वकर्मा व बेटा आशीष विश्वकर्मा। तब दोनों अल्पव्यय अवस्था में थे। ऐसे में उसने अपने पति के द्वारा छोड़ी गई इकलौती छोटी सी झोपड़ीनुमा किराने के दुकान को अपनी ताकत बनाया और अपने हौसले के सहारे उसी के भरोसे दोनों बच्चों को जमकर पढ़ाने की ठान ली। कहना न होगा कि रेखा विश्वकर्मा के स्व. पति स्वयं भी अच्छे खासे पढ़े-लिखेे थे, जिनकी बुद्धि से उसकी पत्नी रेखा स्वयं भी काफी प्रभावित रहती थी। देवयोगवश 2011 में सड़क दुर्घटना ने शंभु विश्वकर्मा की मौत के बाद इस पूरी कहानी का उदय होता है।

आज रेखा विश्वकर्मा की बिटिया कक्षा 10 वीं में 90 प्रतिशत अंक के साथ पास हुई और बेटा आशीष विश्वकर्मा 70 प्रतिशत अंक के साथ 12 वीं पास हुआ था। होनहार बिटिया अपनी मां के संघर्ष को देख पढ़ाई के साथ-साथ झोपड़ीनुमा किराने की दुकान को भी चलाकर अपनी मां का साथ देती है। महिमा आगे चलकर डॉक्टर व उसका भाई आशीष एसआई बनना चाहता है, जिसकी तैयारी तो वे फटे-पुराने पुस्तकों से करते ही आ रहे हैं पर सवाल यह है कि उनके इस लक्ष्य के आगे कहीं रूपयों की ताकत बाधा न बन जाये। अपने बच्चों के सपनों को पूरा करने अब रेखा विश्वकर्मा एक बैंक में प्राईवेट रूप से लोगों को खाते खुलवाने का काम भी करने लगी है। हालांकि कमीशन के इस काम में उसे ज्यादा आमदनी नहीं हो पाती, जिससे रेखा की आंखों के सपने झिलमिलाने लगे हैं। दोनों बच्चों ने भी अपने मां के संघर्षों को साक्षात देखते हुये अपने स्व. पिता और मां के सपनों को साकार करने की ठान ली है। दोनों बच्चों को अगर शासन- प्रशासन का साथ मिलता है तो शायद उनकी मां की यह कठिन तपस्या कभी भी निष्फल नहीं जायेगी।

निंदा फाजली साहब ने जो शेर कहा था वह रेखा विश्वकर्मा पर सटीक बैठता है कि, ,, बेसन की सौंधी रोटी पर खट्टी चटनी जैसी,,

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हर बेटी की करेंगे मदद-कलेक्टर
महिमा के लक्ष्य व पढने की ख्वाहिश को देखते हुये सरगुजा कलेक्टर श्रीमती ऋतु सैन से कहा कि उसकी आगे की पढ़ाई को लेकर हमारी तरफ से पूरी मदद की जायेगी। किसी भी प्रकार की कोई दिक्कत होती है तो वह हमारे पास आ सकती है। उन्होंने अभाव में रहकर भी महिमा के द्वारा कक्षा 10 वीं में 90 प्रतिशत अंक लाने पर बधाई दी। श्रीमती सैन ने कहा कि महिमा ही नहीं जो भी बेटियां पढ़ाई के क्षेत्र में आगे बढना चाहती है उनकी पूरी मदद की जायेगी।