पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक गरिमा का प्रतीक रामगढ़ में महोत्सव का शुभारंभ आज… जानिए दुनियाभर में क्यो प्रसिद्ध हैं रामगढ़… क्या है ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक रहस्य



सरगुजा जिले के उदयपुर विकासखण्ड मुख्यालय के समीप रामगढ़ के ऐतिहासिक, पूरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व से परिपूर्ण भारत की प्राचीनतम नाटयशाला के रूप में विख्यात महोत्सव स्थल पर प्रतिवर्ष की भांति इस वर्ष भी आसाढ़ के प्रथम दिवस पर रामगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जायेगा। दो दिवसीय रामगढ़ महोत्सव का शुभारंभ आज केंद्रीय राज्य मंत्री रेणुका सिंह की अध्यक्षता में किया जाएगा। महोत्सव के प्रथम दिवस 14 जून को राष्ट्रीय शोध संगोष्ठी सह कवि सम्मेलन किया जायेगा एवं 15 जुन को सांस्कृतिक कार्यक्रम में स्थानीय एवं आमंत्रित कलाकार रंगारंग कार्यक्रम की छटा बेखेरेंगे। प्रातः 11 बजे से अपरान्ह 1ः30 बजे तक विद्यालयीन एवं स्थानीय कलाकार तथा अपरान्ह 2ः30 बजे से 5ः30 बजे तक आमंत्रित कलाकारों की प्रस्तुति होगी। आमंत्रित कलाकारों में बबिता विश्वास, स्तुति जायसवाल, संजय सुरीला, ज्योतिश्री वैष्णव सहित भरत नाट्यम, कला विकास केंद्र एवं पारंपरिक गीत संगीत शामिल हैं।

यू तो छत्तीसगढ़ में ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व के अनेक स्थल हैं। सृष्टि निर्माता ने छत्तीसगढ़ को अनुपम प्राकृतिक सौंदर्य से नवाजा है। दक्षिण कौशल का यह क्षेत्र रामायण कालीन संस्कृति का परिचायक रहा है। ऐतिहासिक, पुरातात्विक एवं सांस्कृतिक महत्व की ऐसी ही एक स्थली रामगढ़, सरगुजा जिले में स्थित है। सरगुजा संभागीय मुख्यालय अम्बिकापुर से लगभग 50 किलोमीटर की दूरी पर उदयपुर विकासखण्ड मुख्यालय के समीप रामगढ़ की पहाड़ी स्थित है। दूर से इस पहाड़ी का दृश्य बैठे हुए हाथी के सदृश्य प्रतीत होता है। समुद्र तल से इसकी ऊॅचाई लगभग 3 हजार 202 फीट है।

महाकवि कालिदास की अनुपम कृति ‘‘मेघदूतम’’ की रचना स्थली और विश्व की सर्वाधिक प्राचीनतम् शैल नाट्यशाला के रूप में विख्यात ‘‘रामगढ़’’ पर्वत के साये में इस ऐतिहासिक धरोहर को संजोए रखने और इसके संवर्धन के लिए प्रति वर्ष आषाढ़ के पहले दिन यहां रामगढ़ महोत्सव का आयोजन किया जाता रहा है।

प्राचीनतम नाट्यशाला- प्राकृतिक सुषमा से सम्पन्न रामगढ़ पर्वत के निचले शिखर पर अवस्थित ‘‘सीताबेंगरा’’ और ‘‘जोगीमारा’’ गुफाएं प्राचीनतम शैल नाट्यशाला के रूप में सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। ये गुफाएं तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व मौर्यकाल के समय की मानी जाती हैं। जोगीमारा गुफा में मौर्य कालीन ब्राह्मी लिपि में अभिलेख तथा सीताबेंगरा गुफा में गुप्तकालीन ब्राह्मी लिपि में अभिलेख है। जोगीमारा गुफा में भारतीय भित्ति चित्रों के सबसे प्राचीन नमूने अंकित हैं।

भरतमुनि द्वारा प्रतिपादित नाट्यशाला की जो लम्बाई, चौड़ाई एवं ऊंचाई निर्धारित की गई है, उस पर रामगढ़ की नाट्यशाला लगभग खरी उतरती है। शोधकर्ताओं ने बताया है कि एशिया में ऐसी कोई दूसरी नाट्यशाला नहीं है। इतिहासकार डॉ. राखाल दास बैनर्जी के अनुसार इस नाट्यशाला का निर्माण गंधर्व लोगों ने कराया होगा। मधुसूदन सहाय रूपदक्ष को रंग करने और सुतनुका को नायिका मानकर इसे नाट्यशाला प्रतिपादित करते हैं। नाट्यशाला के ठीक पीछे दो और कमरों का उल्लेख मिलता है।

डॉ. ई. मिडियन प्रिंसपल इविंग क्रिश्चियन कॉलेज इलाहाबाद मानव संसाधन विभाग के क्षेत्रीय सर्वेक्षण दल के साथ 23 नवम्बर 1957 में सरगुजा आए थे। उन्होंने अपने लेख ’’वण्डर ऑफ सरगुजा’’ में रामगढ़ की नाट्यशाला का उल्लेख किया है।

रामगढ़ की मूर्तियों का ऐतिहासिक तथ्य

पुरातात्विक दस्तावेजों के रूप में मूर्तियों, शिलालेखों एवं ताम्रपत्रों का बड़ा महत्व है। रामगढ़ में ऐसे महत्व की वस्तुएं उपलब्ध है। जोगीमारा गुफा में लगभग 8 मूर्तियां संग्रहित हैं। इन मूर्तियों का आकार, प्रकार एवं ऊंचाई तथा आकृतियों के उत्कीर्ण करने की शैली से स्पष्ट होता है कि ये मूर्तियां राजपूत शैली में निर्मित की गई हैं। राजपूत शैली में चेहरे का उभार, ऊंचाई, लम्बी नाक, क्षीण कटि, नितम्बों का उभार, जांघों एवं पिंडलियों का उन्नत्तोदर क्षेत्र अर्द्धकोणाकार पंजे आदि परिलक्षित होते हैं। मूर्तियों के मुख मण्डल पर चिंतन की मुद्रा राजपूत शैली से अलग भाव भंगिमा लगती है। इन तथ्यों से ये मूर्तियां लगभग 2 हजार वर्ष पूर्व की लगती हैं।

मूर्तियां बाहर से लाई गई होंगी अथवा सरगुजा के ही शिल्पियों ने इन मूर्तियों का निर्माण किया होगा। इस विषय में स्पष्टतः कुछ नहीं कहा जा सकता है। सरगुजा रियासत के पूर्व काल में इस क्षेत्र में अतिविकसित सभ्यता का चर्मोत्कर्ष रहा होगा, यह कहा जा सकता है।

रामगढ़ में प्राप्त मूर्तियों के ऐतिहासिक तथ्यों को नकारा नहीं जा सकता क्योंकि यह मूर्तियां शिलाखण्डों को तरास कर बनाई गई है। एक भी मूर्ति ढलुआं नहीं है। ऐसी मूर्तियां का निर्माण सातवीं शताब्दी के आसपास हुआ करता था। प्राचीनतम मूर्तियों का इतिहास रामगढ़ को कई संदर्भों से जोड़ता है। यह निर्विवाद माना जाना चाहिए कि रामगढ़ का पुरातात्विक परिवेश अत्यन्त प्राचीन है। रामगढ़ की पूर्वी दिशा में विशुनपुर ग्राम की पहाड़ी ढलान पर 6 फीट लम्बे एवं 4 फीट चौड़े प्रस्तर शिला पर छेनी से टांककर लोक नृत्य की मुद्रा दर्शायी गई है। स्त्री एवं पुरूषों की सहभागिता से यह पता चलता है कि लोक नृत्य आमोद-प्रमोद का विशिष्ट माध्यम था।

रामगढ़ के शिलालेख

रामगढ़ पहाड़ी के ऊर्ध्व भाग में दो शिलालेख मौजूद हैं। प्रस्तर पर नुकीले छेनी से काटकर लिखे गए इस लेख की लिपि पाली और कुछ-कुछ खरोष्टी से मिलती जुलती है। लिपि विशेषज्ञों ने इसे एक मत से पाली लिपि माना है। इस पर निर्मित कमलाकृति रहस्यमय प्रतीत होती है। यह आकृति कम बीजक ज्यादा महसूस होता है।

रामगढ़ पर श्रीराम का आगमन

भगवान राम के रामगढ़ आने का प्रमाण आध्यात्म रामायण के अनुसार यह है कि महर्षि जमदग्नि ने राम को भगवान शंकर द्वारा दिया गया वाण ’’प्रास्थलिक’’ दिया था। जिसका उपयोग उन्होंने रावण के विनाश के लिए किया था। रामगढ़ के निकट स्थित महेशपुर वनस्थली महर्षि की तपोभूमि थी। इससे यह स्पष्ट होता है कि वनवास के दौरान भगवान राम महर्षि जमदग्नि के आश्रम आए थे तथा ऋषि की आज्ञा से कुछ दिनों तक रामगढ़ में वास किया था।

इतिहासकार डॉ. एम.आर. बरार ने भी भगवान श्रीराम के रामगढ़ आने के संबंध में अपना मत दिया है। उनका तर्क है कि बस्तर से सरगुजा तक का वन क्षेत्र दण्डकारण्य के क्षेत्र में शामिल था। दण्डकारण्य क्षेत्र में श्रीराम के विचरण की कथा प्रमाणित है।

सूर्पणखा के पुत्र सोम का रामगढ़ आना

रामचरित्र मानस के मर्मज्ञ तथा संस्कृत विद्यालय के सेवानिवृत्त अध्यापक पं. सदाशिव मिश्र के खण्ड काव्य ’सोमबध’ में उल्लेखित है कि सूर्पणखा के पुत्र सोम ने रावण से अपने पिता के वध का बदला लेने के लिए ब्रह्म की आराधना शुरू की, ताकि वरदान स्वरूप वह भी रावण से अधिक बलशाली हो जाए। ब्रह्मा ने दर्शन देकर वरदान तो नहीं दिया परन्तु परोक्ष रूप से एक खडग प्रदान की। ’’सोमवध में सोम के घोर साधना का स्थल रामगढ़ बताया गया है।’’ कुटिया निर्माण के लिए बांस लाने की आज्ञा श्रीराम ने लक्ष्मण को दी थी। बांस की तलाश में पहाड़ की तलहटी में लक्ष्मण से उसका मुठभेड़ हुआ। लक्ष्मण ने उसे मार डाला। लक्ष्मण के हाथो सोम का वध प्रमाणित करता है कि राम, लक्ष्मण एवं सीता का आगमन सरगुजा स्थित रामगढ़ पर्वत पर हुआ था। सरगुजा की जनजातियों में आज भी यह मान्यता है कि प्राचीन काल में यहां सूर्पणखा का राज्य था। टोना, टोटका, टोनही माया उसी की देन है।

कालीदास के ’’मेघदूतम’’ की रचनास्थली

रामगढ़ को महाकवि कालीदास की अमरकृति मेघदूतम् की रचनास्थली मानी जाती है। संस्कृति अकादमी भोपाल द्वारा इस ओर विशेष ध्यान देने पर रामगढ़ पुरातात्विक दृष्टि से विशेष अध्ययन का केन्द्र बन गया। रामगढ़ के शिलाओं का इतिहास जानने की शुरूआत उज्जैन निवासी डॉ. हरिभाऊ वाकणकर ने की। इन्होंने रामगढ़ के समीपवर्ती क्षेत्र का गहन अध्ययन किया। इस कार्य में उनके सहयोगी छायाकार पूना निवासी श्री उदयन इन्दूरकर का विशेष योगदान रहा। इन्हें पी.हटसन के आनंद बाजार पत्रिका में 23 अक्टूबर 1909 को छपे लेख से जानकारी मिली की सरगुजा रियासत वैभव एवं शांति व्यवस्था की दृष्टि से दूसरी भोज नगरी थी। डॉ. वाकणकर ने 1913 में रामगढ़ में शोध कार्य किया। उन्हें रामगढ़ के ऊपरी पठार पर श्रीराम की मड़िया एवं एक स्वच्छ जल के सरोवर को देखकर आश्चर्य हुआ। वे विस्तृत शोध के लिए रामगढ़ के उत्तर-पश्चिम दिशा में स्थित बरटोली में रहकर प्रथम चरण में समुचे पहाड़ को सर्वेक्षण के दौरान पहाड़ की तली में एक खोह देखा, जिसके द्वार के बायीं ओर खोदकर लिखा मेघदूत दिखा। उसके ठीक दाहिनी ओर ’’सुतनुका’’ लिखा पाया। डॉ. वाकणकर की जिज्ञासा बढ़ने पर वे खोह के अंदर के भाग को देखने के उद्देश्य से ऊपर चढ़े। लगभग 10 फीट ऊपर ’’कालीदासम’’ खुदा हुआ मिला। तीनों शब्दों को एक कड़ी में पिरोने पर उन्होंने आशय लगाया कि कवि कालीदास ने मेघदूत की रचना यहीं पर की होगी।

वर्ष 1983 में सागर विश्वविद्यालय के पुरातत्व विभाग के प्राध्यापक डॉ. कृष्णदत्त वाजपेयी ने इस स्थान का गहन निरीक्षण किया। निरीक्षण एवं सर्वे के आधार पर उन्होंने कालीदास की मेघदूतम की रचनास्थली इसी रामगढ़ को माना, क्योंकि मेघदूतम में यक्ष के अल्कापुरी तक जाने का मार्ग भौगोलिक दृष्टि से इसी रामगढ़ से सम्बद्ध जान पड़ता है। दक्षिण पश्चिम मानसून की दिशा भी लगभग वही है, जिस दिशा से मानसूनी हवाओं के प्रभाव में आकर मेघमार्ग बनता है। प्रोफेसर वाजपेयी ने दृढ़ता से इस बात पर जोर दिया कि यदि रामगढ़ पर्वत के नीचे स्थित भू-भाग को क्षैतिज उत्खन्न किया जाए, तो वहां किसी समृद्ध नगर के होने का प्रमाण मिल सकता है। उनके सर्वेक्षण में पक्की ईंट के दीवारों के चिन्ह, लोहा गलाने की भटटी के बर्तनों के टुकड़े, मण्डल कूप, मनके और सिक्के आदि मिलना समृद्ध नगर का प्रमाण देते हैं।

रूपदक्ष देवदीन एवं देवदासी की प्रणय गाथा

वाराणसी के रूपदक्ष देवदीन एवं देवदासी सुतनुका की प्रणय गाथा का वर्णन किया गया है। सुतनुका और अन्य देवदासियों की रूपसज्जा का कार्य रूपदक्ष देवदीन करता था। देवदीन ने सुतनुका को प्रेमासिक्त किया था। नाट्यशाला संहिता के अनुसार यह कार्य अनुचित था। संभवतः इसलिए तत्कालीन अधिकारियों ने अन्य देवदासियों व कर्मचारियों को चेतावनी देने के लिए गुफा के दीवार पर अंकित कर दिया, ताकि भविष्य में इसकी पुनरावृत्ति न हो। जोगीमारा गुफा के भित्ति चित्रों को देखकर पुरातत्व वेक्ताओं को काफी आश्चर्य हुआ। इन्हें देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि तत्कालीन साहित्य, कला, सामाजिक वातावरण, मानवीय कला, संचेतना और भावनाओं का उत्कर्ष चरम पर था। संस्कृति साहित्य के मूर्धन्य कवि कालीदास द्वारा रचित अन्यतम खण्ड काव्य मेघदूतम् की रचनास्थली रामगढ़ है, जो मेघदूत के पूर्व मेघ के प्रथम श्लोक में उल्लेखित है। कालीदास ने निवार्सित यक्ष बनकर अपनी ही विरह वेदना को जिस स्थान पर अमरवाणी दी। यह वही रामगिरी है। जहां से यक्ष ने अपना प्रणय संदेश मेघदूतम् के द्वारा मानसरोवर स्थित अल्कापुरी में अपनी प्रियतमा के पास भेजा था।

रामगढ़ स्थित हाथी पोल

सीताबेंगरा के ही पार्श्व एक सुगम सुरंग मार्ग है, जिसे हाथी पोल कहते हैं। इसकी लम्बाई लगभग 180 फीट है। इसका प्रवेश द्वार लगभग 55 फीट ऊंचा है। इसके अंदर से ही इस पार से उस पार तक एक नाला बहता है। इस सुरंग में हाथी आसानी से आ-जा सकता है। इसलिए इसे हाथी पोल कहा जाता है। सुरंग के भीतर ही पहाड़ से रिसकर एवं अन्य भौगोलिक प्रभाव के कारण एक शीतल जल का कुण्ड बना हुआ है। कवि कालीदास ने मेघदूत के प्रथम श्लोक में जिस ’’यक्षश्चक्रे जनकतनया स्नान पुण्योदकेषु’’ का वर्णन किया है वह सीता कुण्ड यही है। इस कुण्ड का जल अत्यन्त निर्मल एवं शीतल है।

रामगढ़ स्थित सीताबेंगरा गुफा

कालिदास युगीन नाट्यशाला और शिलालेख, मेघदूतम् के प्राकृतिक चित्र, वाल्मीकी रामायण के संकेत तथा मेघदूत की आधार कथा के रूप में वर्णित तुम्वुरू वृतांत और श्री राम की वनपथ रेखा रामगढ़ को माना जा रहा है। मान्यता यह है कि भगवान राम ने अपने वनवास का कुछ समय रामगढ़ में व्यतीत किया था। रामगढ़ पर्वत के निचले शिखर पर ”सीताबेंगरा“ और ”जोगीमारा“ की अद्वितीय कलात्मक गुफाएँ हैं। भगवान राम के वनवास के दौरान सीताजी ने जिस गुफा में आश्रय लिया था वह ”सीताबेंगरा“ के नाम से प्रसिद्ध हुई। यही गुफाएँ रंगशाला के रूप में कला-प्रेमियों के लिए तीर्थ स्थल है। यह गुफा 44.5 फुट लंबी ओर 15 फुट चौड़ी है। 1960 ई. में पूना से प्रकाशित ”ए फ्रेश लाइट आन मेघदूत“ द्वारा सिद्ध किया गया है कि रामगढ़ (सरगुजा) ही श्री राम की वनवास स्थली एवं मेघदूत की प्रेरणा स्थली है।

रामगढ़ स्थित जोगीमारा गुफा

सीताबेंगरा के बगल में ही एक दूसरी गुफा है, जिसे जोगीमारा गुफा कहते हैं। इस गुफा की लम्बाई 15 फीट, चौड़ाई 12 फीट एवं ऊंचाई 9 फीट हैं। इसकी भीतरी दीवारे बहुत चिकनी वज्रलेप से प्लास्टर की हुई हैं। गुफा की छत पर आकर्षक रंगबिरंगे चित्र बने हुए हैं। इन चित्रों में तोरण, पत्र-पुष्प, पशु-पक्षी, नर-देव-दानव, योद्धा तथा हाथी आदि के चित्र हैं। इस गुफा में चारों ओर चित्रकारी के मध्य में पांच युवतियों के चित्र हैं, जो बैठी हुई हैं। इस गुफा में ब्रह्मी लिपी में कुछ पंक्तियां उत्कीर्ण हैं।

सरगुजा अपने अतीत के गौरव और पुरातात्विक अवशेषों के कारण भारत में ही नहीं, अपितु एशिया में भी अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है। सरगुजा चारों ओर अपने गर्भ में अनेक ऐतिहासिक तथ्यों को संजोए हुए है। इन ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक स्थानों में से जो कुछ तथ्य प्राप्त हुए हैं, उन्हें देख सुनकर सहसा विश्वास नहीं होता है। सरगुजा जिले में अब तक प्राप्त विवरण के अनुसार लगभग 50 से 55 स्थान ऐसे हैं, तो अपने ऐतिहासिक एवं पुरातात्विक रहस्य के कारण पुरातत्ववेत्ताओं के लिए विशिष्ट स्थान रखते हैं।