आज भौतिक संस्कृति की बढ़ती चकाचौंध ने हमारे समाज को बुरी तरह प्रभावित किया है जिसने एक तरह की दिखावा संस्कृति को जन्म दिया है। जिसमें हर व्यक्ति अपनी ऊर्जा को प्रदर्षन में नश्ट कर रहा है। जिसका व्यक्तित्व विकास व औचित्य से दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है। इस दिखावे की संस्कृति से सबसे ज्यादा बच्चे और किषोर उत्साहित हुए हैं। हमारे सामाजिक तथा पारिवारिक परिवेष में बहुत कुछ ऐसा घटित होने लगा है जो आज महंगे खान-पान से लेकर महंगे इलेक्ट्राॅनिक उपकरणों को प्राप्त करने की होड़ ने उनके जीवन मूल्यों को प्रभावित किया है। टी0 वी0 इंटरनेट और गैजेट्स के बीच बड़े हो रहे बच्चों की जिद मासूम मन में उपजी किसी खिलौने की चाहत नहीं रह गई है अब उनकी इच्छाएं और जरूरते बदल गई हैं। कल तक जो बच्चे लकड़ी के खिलौनों से संतुश्ट हो जाया करते थे वे अब महंगे इलेक्ट्रॅानिक उपकरणों को प्राप्त किए बिना संतुश्ट नहीं होते। आज के दौर में बचपन हजारों खतरों से घिरा है। बच्चों का प्यारा सा बचपन कहीं खो सा गया है। कहानियां और लोरियां गायब हो गई हैं और रह गया है सेलफोन, कंप्यूटर, वीडियोगेम, कार्टून षो आदि। इन सब चीजों ने बच्चों की कोमल संवेदनाओं को समाप्त कर दिया है। वे समय से पहले परिपक्व हो रहे हैं। बच्चों को लुभाने के लिए विज्ञापनों की एक भ्रामक दुनियां भी है जो सबसे ज्यादा बालमन पर प्रहार करती है। इन भ्रामक विज्ञापनों के जाल ने बच्चों के कोमल मन में भौतिक वस्तुओं को बटोरने की ललक पैदा कर दी है। बच्चों की चाहत ही सब कुछ होती है और यदि उनकी चाहत न पूरी हो तो वे दुखी हो जाते हैं। इसलिए बच्चों को बचपन से ही इस बात से अवगत कराना आवष्यक है कि उनके परिवार परिस्थितियां क्या है और उसके अनुरूप ही उनकी इच्छाओं व उनकी जरूरतों को पूरा कर पाना संभव है। इस बदलते परिवेष में माता-पिता की सूझ-बूझ अतिआवष्यक है।
बच्चों को सुसंस्कृत बनाने के लिए सर्वप्रथम घर का वातावरण सुखद षान्त और उल्लासपूर्ण बनाये रखना आवष्यक है। बच्चों का सही-समुचित लालन-पालन तो पारिवारिक दायित्व है ही साथ ही उन्हे एक अच्छा वातावरण देना भी उनकी जिम्मेदारी है। संस्कारवान व अच्छा वातावरण गुणवत्ता के संप्रेशण की स्वचालित प्रणाली है। इसका निर्माण माता-पिता के स्वयं के व्यक्तित्व व उनके कर्तृत्व से होता है। घर के वातावरण की उपयुक्तताए श्रेश्ठता पर ही बच्चों के जीवन की उत्कृश्टता निर्भर करती है। अच्छा स्वभावए अच्छी आदतें, सद्गुण, सदाचार ही उत्कृश्ट जीवन के आधार हैं। इन्हीं गुणों पर जीवन की सरलताए सफलता और विकास निर्भर होता है। जो माता-पिता इस उत्तरदायित्व को समझते और निभाते है वे अपने बच्चों को ऐसी चारित्रिक संपत्ति दे कर जाते है जिसके ऊपर संपूर्ण जीवन स्थिति निर्भर करती है। जिन घरों में लड़ाई-झगड़ेए कलहए अषांति रहती है वहां बच्चों पर इसका बहुत ही बुरा प्रभाव पड़ता है। जो माता – पिता श्रद्धा और स्नेह के केंद्र होते है उनके प्रति बच्चों में अनादरए तुच्छताए संकीर्णता के भाव पैदा हो जाते हैं। जो आगे चलकर उनके स्वभाव और व्यक्तित्व के अंग बन जाते हैं। माता पिता के व्यसनए आदतों का अनुकरण बच्चे सबसे पहले करते हैं। उदारताए प्रेमए आतमीयताए बंधुत्व आदि की अनुकूल – प्रतिकूल भावनाओं का अंकुर बच्चों के प्रारम्भिक जीवन में ही जम जाता है। माता – पिता के व्यवहार आचरण से ही बच्चों का जीवन बनता है। साहस निर्भीकता आत्मगौरव की भावना बचपन में घर से ही पनपती है। परिवार के वातावरण में ही बच्चों के संस्कार भाव विचार आदर्ष गुणों आदि का निर्माण होता है। बच्चों में अनुकरण करने की प्रवृत्ति प्रबल होती है इसलिए उनके प्रषिक्षण में उपदेषों का नहीं प्रत्यक्ष आचरण का विषेश महत्व होता है।
बच्चों को जन्म देने भर से माता-पिता की जिम्मेदारी पूरी नहीं हो जाती बल्कि उन्हे पालन-पोशण के साथ षिक्षित और संस्कारित बनाने की भी जिम्मेदारी होती है। संतुलन सादगी और सुरुचि का का अभ्यास बच्चें अपने माता – पिता से ही सीखते हैं। अतः बच्चों के विकास में आगे बढ़ने में आत्मनिर्भर बनने में माता – पिता की अहं भूमिका होती है। उन्हे घर ही नहीं विद्यालय तथा पास पड़ोस के वातावरण पर ध्यान चाहिए। बच्चे स्वभाव से ही कर्मषील एवं परिश्रमषील होते हैं उन्हे केवल सही दिषा निर्देषन की आवष्यकता होती है इसलिए बच्चों की क्षमता और रुचि को समझकर उसे उसी दिषा में प्रोत्साहन देना चाहिए। बच्चों के अन्दर संस्कार निर्माण के लिए बच्चों को बाल साहित्य की ओर प्रेरित करना चाहिए साथ ही सही और अच्छी पुस्तकों के चयन में मदद करनी चाहिए। बच्चों की सामाजिक चेतना को दिषा देने काम बाल साहित्य करता है। बच्चों को स्वाभाविक रूप से कहानियों कविताओं वाली रंग-बिरंगी पुस्तकें आकर्शित करती हैं। इनका स्वभाव कौतूहलप्रिय होता है इससे वे घटनाओं के माध्यम से हर बात को भली – भांति समझ लेते हैं। इसलिए बच्चों को ऐसी किताबें पढ़ने के लिए देनी चाहिए जिससे उनका मनोरंजन तो हो हीए साथ ही उनमें सद्गुणों के प्रति आस्था भी जागे तथा व्यावहारिक जीवन में भी सफल होने की दिषा प्राप्त हो। जिससे उनका व्यक्तित्व आगे चलकर परिश्कृत व सौन्दर्यपूर्ण हो। उनके भीतर बचपन से ही संयमी तथा संस्कारी होने के बीज रोपें जाएं जिससे वे अनावष्यक भौतिक चकाचैध के षिकार होने से बच सकें।
वीना सिंह
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