अम्बिकापुर .. खबर लिखना और शोशल मीडिया मे पेश करके वाहवाही लूटना कभी फटाफट न्यूज का मकसद नही रहा.. वेब न्यूज पोर्टल मे प्रदेश का अग्रणी वेबसाइट फटाफट अपने मकसद के लिए कार्य करता है.. हमेशा से गरीब और आदिवासी समाज की खबरें दिखाकर उस पर प्रभावी पहल की इमानदार लडाई का पक्षधर रहा फटाफट न्यूज ने आज जो दिखा वो, लिखा के अपने पुराने रिवाज के मुताबिक एक तकलीफ देखी.. जिसको आप लोगो से शेयर कर रहा है.. दरअसल मामला आधुनिकता की चकाचौंध मे रोड लाइट की रोशनी मे पढाई करने का है.. लेकिन ये खबर किसी सरकार की खिलाफल की नहीं बल्कि उस जानकारी के लिए है जिसको अब तक सरकार तक पहुंचाना किसी ने जरूरी नहीं समझा
खानाबदोश की जिंदगी ऐसी क्यों…
जी हम बात कर रहे उन परिवार के बच्चों की जो अक्सर किसी भी शहर मे अपने परिवार के भरण पोषण के लिए देशी जडी बूटी बेचकर भी खाना बदोश की जिंदगी यापन कर रहे है.. दरअसल ऐसे परिवार अम्बिकापुर मे लगभग साल भर डेरा डाले रहतें है.. लेकिन शासकीय दस्तावेज के हिसाब से असल मे ये शहर के बाशिंदों की फेहरिस्त मे कभी भी शामिल नहीं रहते है.. ऐसे मे इनके बच्चों की शिक्षा भी नहीं हो पाती है क्योंकि स्थाई ठिकाना ना हो पाने की वजह से इनके बच्चों का किसी स्कूल मे दाखिला भी नहीं हो पाता है.. और फिर वैसी ही परिस्थिति जन्म लेती है जो आधुनिकता के चकाचौंध मे भी अंधेरा कर देती है…
शिक्षा की ललक ऐसी कि रोड लाईट मे पढते हैं बच्चे.…
वैसे तो खानाबदोश की जिंदगी जीवन यापन करने के दौरान इस समाज के बच्चे भी इसी छोटे और पेट पालने वाले व्यवसाय मे लग जाते हैं.. लेकिन अम्बिकापुर मे अक्सर कलाकेन्द्र मैदान के पास अपना स्थाई ठिकाना बनाने वाले खानाबदोश परिवार के बच्चों को देखकर लगा कि ये भी समाज के अन्य पढे लिखे परिवार के बच्चों की तरह पढना लिखना चाहते हैं.. लेकिन परिस्थिति ऐसी है कि अंधेरे मे रात बिताने वाले परिवार से तालुक रखने वाले परिवार के बच्चों मे पढने की इतनी इच्छा है कि वो मैदान के बगल विवेकानंद स्कूल के सामने की स्ट्रीट लाइट मे पूरे मन से रोजाना पढाई करतें हैं.. लेकिन इनकी दिक्कत सिर्फ इतनी है कि जब इन अप्रवासी अम्बिकापुर परिवार के 13 वर्षीय राजकुमार 11 साल के कुलदीप और आठ साल के राजा अपने छोटे भाई बहन चुटली ,मंगलू भोला के साथ कुछ महीने पहले एडमीशन के दिनों के दौरान पास के केदारपुर स्कूल में दाखिला लेने का ख्वाब सजा कर वहां पहुंचे तो स्कूल प्रबंधन ने केवल इस बात का बहाना बना कर दाखिला लेने से मना कर दिया कि वो कहां के निवासी है इसका उनके पास प्रमाण नहीं है….. लिहाजा अपनी पढने की इच्छा वो बच्चे ट्यूब लाइट की उस रोशनी मे पूरा कर रहे हैं.. जिस रोशनी मे हम अपनी कार दौडाने की इच्छा रखते हैं…..
खेती बाडी नहीं तो भटकते है दर दर...
जानकारी के मुताबिक खानाबदोश की जिंदगी जीने वाले समाज के लोगों के खेती बाड़ी की जमीन नहीं होती है.. और ये राजस्थान, मध्यप्रदेश और विभिन्न स्थानों के बाशिंदा होने के बाद भी जंगलो की जड़ी बूटी का संग्रह कर उसको बेंचने का छोटा मोटा व्यवसाय करते हैं.. और देश के विभिन्न हिस्सों मे घूम घूम कर अपने परिवार का भरण पोषण करतें है.. ऐसे मे इनकी संतान कभी शिक्षा ग्रहण नहीं कर पाती है…
शायद होना तो ये चाहिए..
सरगुजा मे घुमंतु बच्चो के लिए प्रशासन ने कई स्कूल आवासीय विद्यालय खोले हैं.. लेकिन उन विद्यालय मे से एक मे प्रबंधन ने इन बच्चों का दाखिला लेने से मना कर दिया.. वैसे तो जरूरी शिक्षा के नियम के मुताबिक अगर शासन प्रशासन चाहे तो ऐसे बच्चों को पढाने के लिए किसी भी संस्थान को निर्देश दे सकती है… लेकिन बस जरूरत है तो शासन प्रशासन को वो इच्छा शक्ति पैदा करने की .. जो कुछ नहीं होने के बाद भी उन बच्चों मे है जो रोड लाईट मे भी अपने भविष्य को गढने की शक्ति रखते हैं…..