विशेष लेख : बहुत पुरानी बात नहीं, एक गांव था…

  • केवलकृष्ण

अभी दिन ही कितने हुए हैं। सवा साल ही तो। किसी इलाके में इतनी थोड़ी अवधि में किसी बड़े परिवर्तन की उम्मीद कैसे की जा सकती है। लेकिन उम्मीदों से परे भी घटित हुआ है कोंडागांव में। यदि इसे चमत्कार कह दें तो यह शब्द भी छोटा पड़ जाएगा। चमत्कार कहना उस वैज्ञानिक सोंच और दूरदृष्टि को नजरअंदाज कर देना भी होगा, जिसकी वजह से नक्सलवादियों से पीड़ित इस इलाके के लोग अब खुद को मुक्ति-पथ पर पा रहे हैं।

वह तारीख 24 जनवरी 2012 थी, जब पिछड़ेपन के धुंधलके को पोंछकर विकास के दर्पण में कोडागांव ने अपना चेहरा देखा। उसने अपना अस्तित्व महसूस किया। आइने में अपने दोनों हाथ देखे, हाथों की ताकत देखी, पूरा शरीर देखा, पूरा का पूरा कोंडागांव देखा। इस इलाके को याद है कि 9 साल पहले हालात कैसे थे फिर कैसे बदलाव की शुरुआत हुई। और कैसे फिर पूरा का पूरा कोंडागांव बदल गया। असल क्रांति और किसे कहते हैं। अंधरे का छंट जाना, रौशनी का बिखर जाना। 9 सालों में कोंडागांव एक गांव से कस्बे और कस्बे से जिले में बदल गया। 9 साल तक विकास की कोख में पल रहा शिशु अब जन्म ले चुका है। विकास की ऊंगलिया थामे चलना सीख चुका है और चलना ही नहीं अब वह दौड़ने भी लगा है। किसी इलाके के 5 लाख 78 हजार से ज्यादा लोगों के पते में अब कोंडागांव तहसील के रूप में नहीं, जिले के रूप में दर्ज होता है। इसमें छुपी अनुभूति वही महसूस कर सकता है, जिसके लिए यह परिवर्तन हुआ है। लेकिन इस अनुभूति से भी बड़ी अनुभूतियां वे महसूस करते होंगे। अब इस जिले के अपने भूगोल और सामाजिक परिस्थितियों के हिसाब से विकास की योजनाएं तैयार करने वाला प्रशासनिक अमला यहीं तैनात है। अब इस इलाके की समस्याओं को दिगर इलाकों से पृथक कर चिन्हित किया जाता है और उनके निराकरण की रणनीति तैयार की जाती है। सरकार से मिलने वाले धन का उपयोग अब क्षेत्र की जरूरते पूरी करने के लिए पहले से कहीं बेहतर हो पाता है। ऐसे में तस्वीर तो बदलेगी ही।

कोंडागांव का कस्बे से जिले में बदल जाना उस प्रक्रिया का हिस्सा है, जिसकी शुरुआत पूर्व प्रधानमंत्री अटलबिहारी वाजपेयी ने छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के साथ शुरू की थी। बड़े इलाकों का छोटे इलाकों में प्रशासनिक विभाजन। यह पुराना अनुभव था कि बड़े इलाकों में विकास की प्रक्रिया केवल प्रशासनिक केंद्रों के इर्द-गिर्द ही सिमट कर रह जाती है। दूर-दराज के इलाके अछूते ही रह जाते हैं। वे उपेक्षा और पिछड़ेपन का शिकार होते हैं। राज्य निर्माण के बाद अटलबिहारी वाजपेयी के सूत्र से समस्याओं के गणित को हल करने की शुरुआत हुई। बड़े जिलों का छोटे जिलों के रूप में विभाजन शुरु हुआ। आज छत्तीसगढ़ में 27 जिले हैं और कोंडागांव उन्हीं में  से एक है। थोड़ी सी अवधि में इस जिले ने विकास के नये आयामों को छू लिया है। वनवासियों के कल्याण के लिए सरकार ने जो योजनाएं बनाईं, उन्हें धरातल में उतारने में यह जिला अव्वल रहा है। जंगल की जमीन पर पीढियों से खेती-किसानी कर भरण-पोषण करने वाले वनवासी परिवारों को तरह-तरह की दिक्कतों का सामना करना पड़ता था। उनका कब्जा गैरकानूनी माना जाता था और इसीलिए उन्हें समय-समय पर प्रशासनिक कार्रवाई का सामना करना पड़ता था। जिस जमीन पर वे काबिज थे, न तो उस पर वे कोई ऋण ले सकते थे और न ही वे दिगर सुविधाएं हासिल कर पाते थे जो सामान्य भूस्वामी हांसिल करता है। यह बड़ी मुसीबत थी। जिस जमीन को बुजुर्गों ने उन्हें सौंपा था, उसे ही लोग पराई जमीन कहते। इस पीड़ा को सरकार ने महसूस किया और शुरू हुआ वनवासियों को जंगल की जमीन का मालिक बनाने का अभियान। अभियान तो पूरे प्रदेश में चला, लेकिन कोंडागांव जिले में सबसे ज्यादा 45 हजार 114 वनाधिकार मान्यता पत्र यानी पट्टे बांटे गए। यानी एक ऐसी समस्या को समूल नष्ट कर दिया गया, जिसे असंतोष में बदलकर नक्सलवादी अपना स्वार्थ साधा करते थे। सरकार ने पट्टे बांटकर ही अपने कर्तव्य की इतिश्री नहीं कर ली। बल्कि इस ओर भी ध्यान दिया कि वनवासी अपनी काबिज भूमि के मालिक बनने के बाद आधुनिक तरीके से खेती करें, अच्छी आमदनी प्राप्त करके विकास की मुख्यधारा में अपना प्रवाह और तेज करें। 25 हजार 383 पट्टाधारियों को बीजों का वितरण किया गया। सिर्फ वनवासियों की ही नहीं अन्य तबके के वंचितों के लिए भी योजनाएं बनीं और उन पर अमल हुआ। 36 हजार 617 लोगों को गरीबी रेखा में मान्यता मिली और उनके कल्याण की योजनाएं उन तक पहुंचाई गई। जिनके पास घर नहीं थे ऐसे लोगों को इंदिरा आवास दिए गए। इनका आंकड़ा अब 18 सौ के पार हो चुका है। कोंडागांव के जिला बन जाने का सबसे बड़ा फायदा यह हुआ कि प्रशासन और आम लोगों के बीच की दूरी पट गई। अब अपनी सामान्य जरूरतों के हल के लिए उन्हें दूर नहीं जाना पड़ता। बड़े अफसरों और नेताओं का आना जाना बढ़ा तो योजनाओं के अमल पर निगरानी कड़ी हुई। नये दफ्तर खुले, नया अमला नियुक्त हुआ, नये निर्माण हुए, नये रोजगार खुले, नये अवसरों का सृजन हुआ। स्थानीय स्तर पर ही हो रही निगरानी का परिणाम है कि जिले में शिक्षा का स्तर सुधर गया है। प्रतिभाओं को उड़ान के लिए नया आकाश मिल गया। छोटा जिला होने की वजह से सरकार अब इस इलाके पर पहले से कहीं ज्यादा अच्छी तरह से ध्यान दे पा रही है। इलाके में स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में भी अच्छी तरक्की हुई है। नये अस्पताल खुले हैं और नया स्वास्थ्य अमला भी तैनात हुआ है। अब गंभीर बीमारी से ग्रस्त लोगों अथवा हादसों में घायल लोगों को तत्काल अस्पताल पहुंचाने की सुविधा उपलब्ध है। इससे अनेक जानें बचाई जा सकी हैं। इस तरह कोंडागांव एक नये समाज का निर्माण कर रहा है। समस्याओं और असंतोष से मुक्त समाज का। असंतोष का खात्मा और अच्छी सुरक्षा व्यवस्था का ही परिणाम है कि यहां बड़ी नक्सली घटनाओं में 80 फीसदी तक गिरवाट आई है। जिले में नये थाने और चौकियां खुल गई हैं। नक्सली अब छिटपुट वारदात ही कर पाते हैं। पहले जहां नक्सलवादी बड़े दलों के रूप में वारदातों को अंजाम दिया करते थे अब उन्होंने स्माल एक्शन फोर्स बना रखे है, यह उनकी रणनीतिक मजबूरी का संकेत है।

समाज में सकारात्मक वातावरण का निर्माण होने से रचनात्मकता को बढ़ावा मिला है। टेराकोटा और बेलमेटल शिल्प के लिए यह इलाका पहले ही विख्यात रहा है। अब इन  कलाओं को और भी प्रोत्साहन मिल रहा है। नये विक्रय केंद्र खुल जाने से कलाकारों और शिल्पकारों को नया बाजार मिला है। आमदनी बढ़ गई है। यही वजह है कि नयी पीढ़ी भी इस हुनर को अपना रही है और इससे कोंडागांव की शानदार कला परंपरा को नया जीवन मिल गया है। इस इलाके में खेल प्रतिभाओं की भी कमी नहीं है। अब प्रदेश सरकार के प्रयासों से यहां स्टेडियम के निर्माण के लिए 6 करोड़ रुपए मिल गए हैं। इस तरह खेल के क्षेत्र में भी नये वातावरण का निर्माण हो रहा है। कुल मिलाकर कोंडागांव अपने पैरों पर खड़ा हो गया है, उसने चलना सीख लिया है, बल्कि अब तो वह दौड़ने भी लगा है। पूत के पांव पालने में नजर आ रहे हैं।