“डूबता छत्तीसगढ़ : प्रदेश की अर्थव्यवस्था कैसे बनी शराब की ग़ुलाम.?”… कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ ही कोई बेवफ़ा नहीं होता

  • अमित जोगी का साप्ताहिक कॉलम – भाग 03

छत्तीसगढ़ में कोई भी नेता खुलकर शराबबंदी का विरोध नहीं करेगा। सबको पता है कि प्रदेश में शराब की समस्या ने विकराल रूप धारण कर लिया है। कबीरपंथी और सतनामी- जिनके अनुयायी छत्तीसगढ़ की 60% आबादी हैं- दोनों ही मानते हैं कि प्रदेश में शराब बंद होनी चाहिए। आदिवासियों में भी अब शराब बंद करने की बात होने लगी है। मेरे पिता जी अकेले आदिवासी नेता नहीं हैं जब वे कहते हैं कि बूढ़ा देव और ठाकुर देव को ख़ुश करने के लिए महुआ की शराब नहीं, महुआ के फूल ही पर्याप्त हैं। कांग्रेस के नेता राहुल गांधी ने 2018 विधान सभा चुनाव के पहले रायपुर के कांग्रेस भवन में अपने हाथ में गंगा जल रखकर सरकार बनते ही छत्तीसगढ़ में पूर्ण शराब बंदी लागू करने की क़सम खाई थी। भाजपा और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे), दोनों उनकी इस घोषणा का विधान सभा में अधिकृत रूप से समर्थन कर चुके हैं। मतलब प्रदेश के तीनों दलों- 90 में से 90 विधायकों- में कोई विवाद नहीं है की छत्तीसगढ़ के सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए शराब बंद होनी चाहिए। विंसटन चर्चिल का मशवरा कि अगर कुछ नहीं करना है तो समिति बना दो का अनुसरण करते हुए भूपेश सरकार ने शराबबंदी के लिए एक नहीं, तीन-तीन समितियों का ताबड़तोड़ गठन भी कर दिया है। इसके बावजूद छत्तीसगढ़ पूरे देश में शराब पीने में नम्बर वन है। हर महीने सरकार जनता को 526 क़िस्म की औसतन 1 करोड़ प्रूफ़ लीटर देशी और विदेशी मदिरा खुले आम पिलाकर वर्ल्ड रिकार्ड बना रही है। सीधे शब्दों में कहें तो शराबबंदी का वादा करके शराबमंडी चला रही है।

  • कुछ तो मजबूरियाँ रही होंगी, यूँ ही कोई बेवफ़ा नहीं होता…

आख़िर ऐसी क्या मजबूरी है कि हम शराब बंद नहीं कर रहे जबकि हमसे आबादी और क्षेत्रफल में बड़े गुजरात और बिहार ऐसा सफलतापूर्वक कर चुके हैं? आज की कॉलम में मैं इस प्रश्न का उत्तर दूँगा। पहला और सबसे सरल और सीधा उत्तर: रमन सिंह के शासनकाल में 2017 के बाद सरकार ने शराब के धंधे पर अपना ऐसा एकाधिकार (मोनौपलि) क़ायम किया कि जनश्रुति के अनुसार घर बैठे मुख्यमंत्री निवास के पश्चिमी गेट से बिना लॉगबुक में एंट्री के हर रात ₹2.5 करोड़- ₹2000 के गुलाबी नोटों के बंडल में- नगद पहुँचने लगा है। रक़म पूरी है, इसके लिए नोट गिनने की मशीन लगाई गई है। जब आए दिन पंच से लेकर सांसद का चुनाव सिद्धांतों और सम्बन्धों की जगह पैसों और दारू के दम पर जीता जाता है, तो सोने के अंडे देने वाली शराब की इस मुर्गी का गला काटना राजनीतिक बेवक़ूफ़ी नहीं तो और क्या? अगर मैंने ग़लत लिखा है, तो दोनों मुख्यमंत्री, पूर्व और वर्तमान- रमन सिंह और भूपेश बघेल- मुझपे आपराधिक मानहानि का केस करें। पिछले दो दशकों में दोनों मुझपे इतने केस कर चुके हैं कि आदत सी हो गई है! वैसे भी शराब की इस दलदल में नेता, जो शराब पिलाकर वोट ख़रीदते हैं, और जनता, जो शराब पीकर अपना वोट बेचती है- हम सब नंगे हैं!

दूसरा कारण इस से कहीं ज़्यादा चिंताजनक है- और जब तक इस कारण को हम आड़े हाथ नहीं लेते, हमारा भविष्य अंधकारमय ही रहेगा। ये कारण सीधे-सीधे हमारी अर्थव्यवस्था से जुड़ा है। यह सर्वविदित है कि पूरे भारत में सबसे अधिक मात्रा और अनुपात में शराब छत्तीसगढ़ में ही बिकती है। दिल्ली के विख्यात AIIMS के नेशनल ड्रग डिपेन्डेंस ट्रीटमेंट सेन्टर ने मादक द्रव्यों के सेवन का आंकलन करने के उद्देश्य से दिसम्बर 2017 से अक्टूबर 2018 के बीच 4,73,569 व्यक्तियों का देशव्यापी सर्वेक्षण किया था। इस सर्वेक्षण के अनुसार छत्तीसगढ़ की:

  • 33% आबादी मतलब 82.5 लाख लोग शराब का आदतन सेवन करते है जिसमें अधिकांश युवा वर्ग (15 से 29 वर्ष) और मध्यम आयु वर्ग (45 से 59 वर्ष) के हैं;
  • 15.4% आबादी मतलब 38.50 लाख लोग बीड़ी, सिगरेट और तंबाखू का सेवन करते है और
  • 4.5 लाख लोग इन्हेलेंट (अंतः श्वसन मादक पदार्थ) नशेड़ी है जिसमें अधिकांश बच्चे (18 वर्ष के कम आयु के) हैं।

-इनकी नशामुक्ति के लिए छत्तीसगढ़ सरकार द्वारा एक भी नशामुक्ति केंद्र (डी-अडिक्शन सेंटर) संचालित नहीं है और न ही इसके लिए आज तक कोई वित्तीय प्रावधान किया गया है।

  • शराबियों की 33% जनसंख्या की तुलना जब अन्य बड़े राज्यों जैसे उत्तर प्रदेश (7%), राजस्थान (6.5%), महाराष्ट्र (2.7%), तमिलनाडु (8.5%), पश्चिम बंगाल (12.7%), आंध्र प्रदेश (16.1%) और पंजाब (6.4%) से की जाती है, तो समझ में आता है कि शराब की समस्या ने हमारे प्रदेश में कितना विकराल रुप धारण कर लिया है।
  • आदिवासी ही क्यों बने बलि के बकरे.?

इस सर्वेक्षण के अलावा शराब के सेवन के कारणों को जानने के लिए रजिस्ट्रार जनरल आफ इंडिया ने 2014 में SRS (Sample Registration System) बेस लाईन सर्वे किया था। इन दोनों सर्वेक्षणों के अनुसार छत्तीसगढ़ में शराब की समस्या का प्रमुख कारण आदिवासी हैं। उन की माने तो 18.2% आदिवासी शराब पीते है। मैं दोनो सर्वेक्षणों के इस निष्कर्ष से सहमत नहीं हूं।

सर्वेक्षणों ने छत्तीसगढ़ में शराब की खपत की मात्रा का आधार राज्य सरकार के आबकारी विभाग द्वारा प्रकाशित जानकारी को बनाया है। छत्तीसगढ़ में आबकारी विभाग के द्वारा संचालित 422 देशी और 299 विदेशी दुकाने हैं जिसमें 89% टायर-1, टायर-2 और टायर-3 शहरी बस्तियों के अंदर हैं और मात्र 11% प्रदेश के ग्रामीण और अनुसूचित (जहाँ आदिवासियों की बहुल्यता है) इलाक़ों में है। शराब की सबसे ज्यादा बिक्री बड़े टायर-1 शहरों में है। यहाँ आदिवासियों की आबादी सबसे कम है। वैसे भी अधिकांश आदिवासी घरो में ही जंगलों से तोड़े महुआ के फूलों से अपनी ज़रूरत की मदिरा पारम्परिक तरीक़े से खुद बनाकर पीते हैं। इस तथ्य का भी उपरोक्त दोनों सर्वेक्षणों ने संज्ञान नहीं लिया है। अगर आदिवासी ही शराब की समस्या का मुख्य कारण होते, तो उत्तर-पश्चिमी भारत के सातों प्रांतों, जहां आदिवासियों की जनसंख्या का अनुपात छत्तीसगढ़ से दुगुना और तिगुना है और पाँचवी की जगह छटी अनुसूची लागू है, में शराब की खपत सबसे अधिक होनी चाहिए थी किन्तु ऐसा दूर-दूर तक देखने को नहीं है।

  • U-टर्न सरकार : गड़बो नवा छत्तीसगढ़ की जगह पिलाबो जम्मो छत्तीसगढ़!

छत्तीसगढ़ में देश में सर्वाधिक शराब की खपत का कारण सामाजिक नहीं बल्कि आर्थिक है। छत्तीसगढ़ की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था शराब बिक्री के अत्यंत ही व्यवस्थित, आधुनिक और वैज्ञानिक तंत्र की नोंक पर टिकी हुई है।

पूर्ववर्ती रमन सिंह सरकार ने 2017 में शराब पर प्रतिबंध लगाने के लिये आबकारी विभाग की देखरेख में 11 सदस्यों की एक अध्ययन टीम का गठन किया था। इस टीम ने 2018 के अंत में जारी अपनी रिपोर्ट में 3 परस्पर विरोधाभासी सिफ़ारिशें करी:

1) राज्य में शराब की खपत को जन जागरूकता फैलाकर कम करना उचित होगा और इसके लिए बजटीय प्रावधान किया जाना चाहिये;

2) तमिलनाडु में प्रचलित ‘आउट्लेट’ शराब बिक्री प्रणाली को लागू करके शराब ब्रांडों की संख्या, शराब की दुकानो के खुले रहने के समय और बिक्री काउंटरों की संख्या मे वृद्धि करी जानी चाहिये और

3) शराब के उपभोग को रोकने के लिये शराब की कीमतो में बढ़ोत्तरी होनी चाहिए।

1 जनवरी 2019 को राज्य के खाद्य और नागरिक आपूर्ति मंत्री मोहम्मद अकबर ने आबकारी विभाग की इस रिपोर्ट को ‘अव्यवहारिक’ बताते हुए सिरे से खारिज करने की बात कहीं थी। सरकार ने नये अध्ययन दल के गठन की घोषणा करते हुए कहा था कि ये दल मात्र 2 महीने में अपनी नई और व्यवहारिक रिर्पोट सौंपेगा। 1 साल पूरे होने के बाद भी आज तक नये अध्ययन दल की रिर्पोट का कोई अता-पता नहीं है। साथ ही सरकार ने जिस रिर्पोट को अव्यवहारिक बताकर ख़ारिज कर दिया था, उसी रिर्पोट की शराब की खपत कम करने वाली एक सिफ़ारिश को छोड़ बाकी दोनों सिफारिशों- जिसमें शराब की क़ीमत और ब्रांडों की संख्या और शराब दुकानों के खुले रहने का समय और काउन्टर की संख्या बढ़ाना प्रमुख है- का सरकार ने अक्षरतः क्रियाँवन कर दिया है। मतलब रमन की राह पर भूपेश निकल पड़े हैं!

  • इसी का परिणाम है कि PRS लेजिस्लेटिव रीसर्च के अनुसार :
  • 2019-20 में छत्तीसगढ़ सरकार शराब बेचकर ₹8788 करोड़- आबकारी शुल्क से ₹5000 करोड़ और विक्रय कर से ₹3788 करोड़- कमायेगी जो कि 2017-18 से 22 % अधिक है।

मतलब अपने पहले वर्ष में ही भूपेश बघेल ने रमन सिंह के शराब बेचने के सारे रिकार्ड तोड़ दिए। ये कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भूपेश सरकार ने ₹6100 करोड़ रूपये की जो किसानों की कर्जा माफ़ी की घोषणा 2018-2019 में करी थी, उसकी सम्पूर्ण राशि से कहीं अधिक ₹8788 करोड़ वो अतिरिक्त शराब बेचकर आबकारी शुल्क और विक्रय कर से वसुल चुकी है। ऐसा ही आरोप राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग के अध्यक्ष और तत्कालीन सांसद नंद कुमार साय ने 2013 में रमन सिंह पर लगाया थी कि वे शराब की कमाई के पैसे से ₹1 किलो चावल बाँट रहे हैं।

एक हाथ से किसानों का कर्जा माफ़ करो, दूसरे हाथ से शराब बेचो और अपनी जेबें भरो: यही भूपेश सरकार की आर्थिक नीति का सार है। इस बात को स्वीकारते हुए सरकार को अपना नारा गड़बो नवा छत्तीसगढ़ से पिलाबो जम्मो छत्तीसगढ़ कर देना चाहिए।

  • दिल्ली और शराब की दोहरी-ग़ुलामी

इंदिरा राजारामन, राजन गोयल, और जीवन कुमार खुदरप्पम के 2006 में इकनामिक एंड पोलिटिकल वीक्ली (EPW) में प्रकाशित एक शोध (Tax buoyancy in Indian states) के अनुसार:

  • शराब बिक्री से राज्य सरकारों की आमदनी (आबकारी शुल्क) में लम्बे कालान्तर में टैक्स-बोईयनसी (कर में उतार-चड़ाव या उछाल की दर) 1.005 से अधिक नहीं होनी चाहिए क्योंकि शराब ‘अलचकदार वस्तु’ (inelastic commodity) है जिसके उपभोग में सामान्यतः बदलती आर्थिक परिस्थियों का कोई ख़ास प्रभाव नहीं पड़ना चाहिये।
  • इस निष्कर्ष का छत्तीसगढ़ एक दुखद- और बेहद चिंताजनक- अपवाद है। प्रदेश के वित्त सचिव के ज्ञापन के अनुसार छत्तीसगढ़ में जहाँ मेरे पिता जी के शासन काल में 2002-03 में शराब बिक्री से आबकारी शुल्क मात्र ₹361.74 करोड़ था, वह भूपेश बघेल के शासन काल में 2019-20 में 12 गुना बढ़कर ₹5000 करोड़ पार कर चुका है।
  • सरल शब्दों में कहें तो जहाँ पूरे देश में शराब बिक्री में 1.005% वृद्धि हुई है, वहीं छत्तीसगढ़ में 1200% का उछाल- जिसे मैं सीधे तौर पर उफान कहूँगा- देखने को मिलता है।

इस आर्थिक अपवाद का परिणाम है रिजर्व बैंक ओफ़ इंडिया (RBI) द्वारा जारी 2018-19 में राज्यों के आर्थिक सर्वेक्षण ‘स्टेट ओफ़ स्टेट्स रिर्पोट’ के अनुसार पूरे देश में शराब बिक्री से कमाई पर सर्वाधिक आर्थिक निर्भरता छत्तीसगढ़ की है:

  • छत्तीसगढ़ सरकार सबसे ज़्यादा पैसा शराब बिक्री से कमाती है, जो कि उसकी कुल आमदनी का 22% हिस्सा है जबकि तमिलनाडु, जिसका शराब बेचने का मॉडल छत्तीसगढ़ में पिछले वर्ष लागू किया गया है, की कुल आमदनी का शराब बिक्री मात्र 6% हिस्सा है।
  • अगर बाकि राज्यों के पिछले 3 दशको में आबकारी शुल्क पर निर्भरता को देखें तो यह 1990 के दशक में 14.5% से घटकर 2010 के दशक मे 12% हो चुकी है।
  • RBI की इस रिर्पोट के अनुसार आज भी अपार प्राकृतिक संम्पदा और आर्थिक सम्भावनाएँ होने के बावजुद छत्तीसगढ़ सरकार 57% केन्द्र सरकार के अनुदानों और 22% शराब बिक्री के पैसे पर निर्भर है।
  • दिल्ली 89%, हरियाणा 77%, महाराष्ट्र 74%, गुजरात, तमिलनाडु और तेलंगाना 70% और पंजाब 64% खुद के राजस्व से अपने प्रदेश की सरकारें चलाने में सफल हो चुके हैं लेकिन शराब और दिल्ली को छोड़ हमारा छत्तीसगढ़ मात्र 21% ही खुद के राजस्व से कमा पाता है।

ये कड़वा सच है कि अगर दिल्ली से अनुदान नहीं मिलेगा और शराब नहीं बेचेगी, तो छत्तीसगढ़ सरकार कैसे चलेगी? मैं इस व्यवस्था को छत्तीसगढ़ की दिल्ली और शराब की दोहरी-ग़ुलामी करार देता हूँ। दिल्ली और शराब की इस दोहरी-ग़ुलामी से मुक्ति पाना छत्तीसगढ़ की आर्थिक नीति का प्रमुख आधार होना चाहिए। जब तक हम ऐसा नहीं करते छत्तीसगढ़ आर्थिक रूप से स्वावलम्भी और स्वतंत्र नहीं हो सकेगा। स्थिति बेहद शर्मनाक है और सरकारों की विफलता को दर्शाता है कि रमन सिंह 15 साल के लम्बे समय और भूपेश बघेल ¾ बहुमत के बावजूद दिल्ली और शराब की इस दोहरी-ग़ुलामी से मुक्ति दिलाने की न तो नीति और न ही नियत बना पाएँ हैं।

  • मदिरा के असर : मंदी, महंगाई और माफिया

भूपेश बघेल कहते नहीं थकते कि छत्तीसगढ़ में आर्थिक मंदी का कोई प्रभाव नहीं है। वे झूट बोल रहे हैं। मैं अपने पिछली कॉलम (छत्तीसगढ़ की ईस्ट इंडिया कम्पनियाँ) में बता चुका हूँ कि CMAI के अनुसार छत्तीसगढ़ में आर्थिक मंदी के कारण चड्डी-बनियान के ख़रीदी में 75% गिरावट हुई है, जो कि पूरे देश में सबसे अधिक है। अब मैं आपका ध्यान सेंटर फ़ोर मॉनिटरिंग इंडीयन इकॉनमी (CMIE) द्वारा सकल राज्य घरेलू उत्पाद (GSDP) और महंगाई (Inflation) के इस महीने प्रकाशित आंकड़ों की ओर आकर्षित करना चाहूंगा:

  • पिछले वर्ष भारत के 17 बड़े राज्यों में से 12 राज्यों का GSDP दर राष्ट्रीय औसत 6.7 % से अधिक था। केवल 5 बड़े राज्यों में आर्थिक मंदी का प्रभाव देखने को मिला। उन में से एक छत्तीसगढ़ भी है। (बाक़ी 4: उत्तरप्रदेश, पंजाब, केरल और झारखंड।)
  • साथ ही छत्तीसगढ़ में महँगाई की दर मात्र एक महीने में अक्टूबर 2019 में 1.8 % से नवम्बर 2019 में 4.1 % बढ़ी जो कि पूरे देश में सबसे अधिक है।

अक्टूबर से नवम्बर में छत्तीसगढ़ में महँगाई ढाई गुना (250%) बढ़ने का कारण बहुत ही स्पष्ट है। इस बार प्रदेश में एक करोड़ मेट्रिक टन धान का रिकार्ड उत्पादन हुआ है। धान ख़रीदी की मात्रा आधा करके और समितियों का कर्ज, मज़दूरी और बोरों का पैसा काटके प्रदेश के किसानों के खाते में सरकार द्वारा ख़रीदे जा रहे 50 लाख मेट्रिक टन धान के विरुद्ध ₹1815 की जगह ₹1500 प्रति क्विंटल ही आएगा। मतलब 50 लाख मेट्रिक टन में उन्हें ₹1000 प्रति टन (कुल: ₹5000 करोड़) और बचे 50 लाख मेट्रिक टन- जिसकी ख़रीदी सरकार नहीं कर रही है- पर विशुद्ध रूप से ₹2500 प्रति टन (कुल: ₹12,500 करोड़) के हिसाब से ₹17,500 करोड़ का नुक़सान होगा। इसके कारण किसानों के पास से पैसा गायब हो गया है और बाज़ार में रोजमर्रा की वस्तुओं के दाम ढाई गुना बढ़ गए हैं।

इसके बावजूद, शराब की बिक्री पर न तो महंगाई और न ही मंदी का असर दिखता है क्योंकि सरकार में आते ही भूपेश बघेल को समझने में देर नहीं लगी कि हमारे प्रदेश की सम्पूर्ण अर्थव्यवस्था जनता को शराब बेचने और पिलाने के इस अत्याधुनिक तंत्र की ग़ुलाम बन चुकी है। इस ग़ुलामी से लड़ने के बजाय वे भी रमन सिंह की तरह शराब-माफिया के सामने हथियार डालकर नतमस्तक हो गए हैं। इस से ज्यादा दुःख की और क्या बात हो सकती है कि जो प्रदेश पिछले 13 सालों से शराब की खपत में पूरे देश में नम्बर 1 है- जहाँ 82,50,000 लोग रोज़ शराब पीकर खुद के साथ-साथ अपने परिवार को भी बरबाद कर रहे हैं- उसमें एक भी नशामुक्ति केंद्र खोला तक नहीं गया है!

ये सरकार की उदासीनता और बदनियत को तो प्रमाणित करता ही है, साथ ही ये भी दर्शाता है कि प्रदेश में शराब बनाने और बेचने के व्यवसाय से जुड़े लोग- जिन्हें सामूहिक रूप से हम शराब-माफिया कह सकते हैं- आज छत्तीसगढ़ की राजनीति में सबसे शक्तिशाली और सबसे प्रभावशाली ताक़त के रूप में क़ाबिज़ हो चुके हैं। ये शराब-माफिया कदापि नहीं चाहेगा कि छत्तीसगढ़ के लोग शराब पीना बंद करें चाहे इस से पूरा प्रदेश ही बरबाद क्यों न हो जाए। जनता की तबाही में ही शराब-माफिया की भलाई है। छत्तीसगढ़ की शराब-माफिया का एक पहलू ये भी है कि प्रदेश की ईस्ट इंडिया कम्पनियों की तरह ही ये सब भी छत्तीसगढ़िया नहीं बल्कि बाहरी हैं।

  • आर्थिक आज़ादी का गुरूमंत्र : पूर्ण शराब बंदी

मुख्यमंत्री अगले सप्ताह देश के बाहर अमेरिका ‘नरवा, गरवा, घुरुवा और बारी’ का प्रचार करने जा रहे है। उनको इन बातों की जानकारी रखनी चाहिए :

  • जहां सरकार को शराब बिक्री से ₹8788 करोड़ मिलेगा, वहीं प्रदेश की प्राकृतिक सम्पदा से केवल ₹8825 करोड़ खनिज की रॉयल्टी और ₹2090 करोड़ बिजली के उत्पादन से मिलेगा।
  • मेरे पिता जी के शासन काल में इस से ठीक उल्टा था: 2003 में शराब बिक्री से ₹361 करोड़ और बिजली उत्पादन से लगभग 10 गुना अधिक ₹3000 करोड़ और खनिज की रॉयल्टी से ₹678.93 करोड़ की राजस्व-प्राप्तियाँ छत्तीसगढ़ को हुआ करती थी।
  • पिछले 17 वर्षों में बिजली का उत्पादन जस का तस है जबकि खपत तिगनी हो गई है, इसीलिए बिजली उत्पादन से कमाई भी 2003 में ₹3000 करोड़ से घटकर 2019-20 में ₹2010 करोड़ हो गई है।
  • ऐसे में छत्तीसगढ़ की आर्थिक आज़ादी के लिए गुरूमंत्र एक ही है: शराब और सम्पदा से प्राप्त राजस्व के इस अनुपात- जिसे मैं आर्थिक आत्मनिर्भरता का गुणांक (coefficient of economic self-reliance) कहूँगा- जो 2002-03 में 0.098 (361/3679 करोड़) था और वर्तमान में 9 गुना अधिक 0.85 (8788/10,915 करोड़) है, को प्रदेश के हित में कम करके ही छत्तीसगढ़ की अर्थव्यवस्था को इस दोहरी-ग़ुलामी से बचाया जा सकता है।
  • आने वाले बजटों का सही और सटीक मूल्यांकन इसी आर्थिक आत्मनिर्भरता के गुणांक पे होगा।

शराब पर बड़ती निर्भरता ही छत्तीसगढ़ की आर्थिक ग़ुलामी का प्रमुख कारण है। इस लेख से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि बिना पूर्ण शराब बंदी के इस ग़ुलामी से आज़ादी पाना असम्भव है। मैं अपनी बात का अंत बाबा साहब डॉक्टर भीम राव अम्बेडकर को स्मरण करके करूँगा: जब तक हम आर्थिक रूप से स्वतंत्र नहीं हो जाते, हमारी राजनीतिक स्वतंत्रता का कोई मायने नहीं है।